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तित्थोगाली पइन्नय ]
जाईसरा जिनिंदा, अपरिवडिएहिं तिहिउ नाणेहिं । कित्तीयय बुद्धीयय, अब्भहिया तेहि मणुए हिं | २७४। (जातिस्मराः जिनेन्द्राः, अप्रतिपतितैस्त्रिभिस्तु ज्ञानैः । कीर्त्या च बुद्ध या च, अभ्यधिकास्तै मनुष्यैः । )
वे सभी तीर्थङ्कर जातिस्मर ज्ञान तथा पुनः कभी किंचित् मात्र भी कम न होने वाले - मति, श्रुति और अवधि - इन तीन ज्ञान से युक्त तथा कीर्ति एवं बुद्धि की अपेक्षा अपने समय के सभी मनुष्यों से बहुत ही बढ़े - चढ़े (विशिष्ट) हैं । २७४ )
देणगं च वरिसं, इंदागमणं च वंसठवणाए । आहारमंगुलीए, विहति देवा मगुणं चि । २७५ | (देशून के च वर्षे, इन्द्रागमनं च (हि) वंशस्थापनाच | आहारमंगुल्यां विदधति देवा: मनोज्ञमिति । )
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जब वे दशों जिनेश्वर एक वर्ष से कुछ न्यून अवस्था के हुए तब पुनः शक्र का आगमन हुआ । उसने दशों जिनेश्वरों के वंश की स्थापना की । देवता उन दशों प्रथम तीर्थं करों की अंगुली में मनोज्ञ अभीप्सित आहार रख देते हैं । २७५ ।
सक्को सठवणे, इक्खअगू तेण होंति इक्खागा । तालफलाहयभगिणी, होहि पत्तीति सारवणा | २७६ । ( शक्रः वंशस्थापने, इक्ष्वाग्रः तेन भवन्ति इक्ष्वाकाः । तालफलाहतस्य भगिनी, विष्यति पत्नीति सारवणा' ।)
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वंश स्थापना के समय इन्द्र इक्षुदण्ड ले कर आया था । उस इक्षु को खाने की अभिलाषा से जिनेन्द्रों ने भुजा पसारी अतः इन्द्र ने उनके वंश की इक्ष्वाकुवंश के नाम से स्थापना की। भरत आदि दशों ही क्षेत्रों में तालफल के गिरने से मरे (दश) नर यौगलिक की बहिन को दशों कुलकरों ने यह कहकर कि वह उनके पुत्र की पत्नी होगी - अपने यहां रखा और उसका सारवण ( संगोपन- संरक्षण) किया । २०६ ।
१ सरवण संगोपना कृतेति ।