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तित्थोगाली पइत्रय ]
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धन्य हैं जिनेश्वरों की माताएं, जिन्होंने सिद्ध गति के पथ को दिखाने वाले तथा धम की धुरी का धारण करने वाले महान् तीर्थङ्करों को अपनी कुक्षियों में वहन किया ।२५१। एवं सरूवएहि, गुणेहिं अभिवंदिऊण जिणवरिदे । जयइ जिनसासणंत्ति, तियपहवासियमाणाहि घुट्ठ ।२५२। (एवंस्वरूपै गुणैः, अभिवन्दित्वा जिनवरेन्द्रान् । जयति जिन शासनमिति, त्रिपथि समानैर्वृष्टम् ।)
इस प्रकार की स्तुतियों से गुणगानपूर्वक जिनेश्वरों को वन्दन करने के पश्चात् सुरलोक ग्रौर भवनों में निवास करने वालो सुरासुर समूहों ने जिनशासन की जय हो'- इस प्रकार का दिव्य तुमुल घोष किया ।२५२॥ मोत्त ण य ते पवरे, कंचण सीहासणे सुरवरिंदा । घेत्त ण जिणे सहिया, सुरेहिं संपत्थिया तुरियं ।२५३। (मुक्त्वा च ने प्रवरान् , कंचन सिंहासनान् सुरवरेन्द्राः । गृहित्वा जिनान् सहिताः सुरैः संप्रस्थिताः त्वरितम् ।)
तदनन्तर उन अतिसुन्दर स्वर्ण के सिहासनों से उठ कर सुरेश्वरों ने तीर्थंकरों को अपने हाथों में अच्छी तरह आसीन किया
और वे सुरसमूह के साथ सुमेरु पर्वत :से शीघ्रतापूर्वक प्रस्थित हुए ।२५३। संपत्ता य खणेण, जिण जम्मवणे पुरंदरा सुइया । नमिऊण जिणे. अप्पंति, विम्हिया नेगमेसीणं ।२५४। (संप्राप्ताश्च क्षणेन, जिनजन्मवने पुरन्दराः शुचिकाः । नत्वा जिनान् अर्पयन्ति, विस्मिता नैगमेषीभ्यः ।) ___जिन-जन्ममहोत्सव को सम्पन्न कर पवित्र बने हुए वे सुरासरेन्द्र क्षण भर में ही समेरु पर्वत से जिनेन्द्रों के जन्मवन में आये। उन्होंने जिनेन्द्रों को नमस्कार कर उन्हें हरिणैगमेषी देवों को समर्पित किया ।२५४॥