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[ तित्थोगाली पइन्नय
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तेहिं विकंचणगोरा, मयलंडण सोमदंसणा सुमणा । निक्खित्ता परमगुरू, पासे जणणीण नियमाणं । २५५ (तैरपि कंचनगौराः, मृगलांछन सोमदर्शनाः सुमनाः । निक्षिप्ताः परमगुरवः पार्श्वे जननीनां निजकानाम् ।)
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हरिगमेषी देवों ने कांचनाभ देह छवि वाले एवं मृगलांछन युक्त पूर्णचन्द्र के समान प्रियदर्शी, प्रसन्नमना परमगुरु तीर्थङ्करों को उनकी अपनी अपनी माताओं के पार्श्व में पहुंचा दिया । २५५ । तो मरुदेवाईणं, निद्द अवहरिय वासवा मुइया ।
सह देवीहिं धुणंति, जिणाण जणणीण पियरो य । २५६ । ( ततः मरुदेव्यादीनां निद्रामपहृय वासवाः मुदिताः ।
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सह देवीभिः स्तुवन्ति, जिनानां जननीन् पितृ श्च ।)
तत्पश्चात् मरुदेवी आदि दशों जिनमाताओं की निद्रा का अपहरण कर इन्द्र अपनी देवियों के साथ प्रमुदित हो जिनेश्वरों की जननियों और जनकों की स्तुति करते हैं । २५६ । भविहुमाण विणण, एवमभिवंदिय सदेवीहिं । जलयर गंभीरेणं, सरेण अह वासवो भइ | २५७/ ( भक्ति बहुमान विनयेन, एवमभिवंद्य सदेवीभिः । जलधरगम्भीरेण स्वरेणाथ वासवो भणति ।)
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परम भक्ति, समादरों और विनयपूर्वक देवियोंस हित सुरासुरेन्द्र द्वारा इस प्रकार स्तुति एवं अभिवंदन किये जाने के पश्चात् घनघटारव गम्भीर स्वर में देवेन्द्र कहने लगे - 1 २५७। भो भो पिसाय भूया, सरक्खसा जक्खनाग गंधव्वा । तुन्भेविय महमारि सासजरकारया चैव | २५८ । (भो भो पिशाचभूताः, सराक्षसाः यक्षनागगंधर्वाः । यूयमपि महामारिश्वासज्वरकार काश्चैव ।)
भो ! भो ! पिसाचो, भूतो, राक्षसो, यक्षो, नागो, गन्धर्वो तथा महामारी, श्वास ज्वरादि रोगों के फैलाने वाले तुम सब देव भी । २५८ ।