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________________ तित्थोगाली पइन्नय ] सुयरं जेमिं पुण कुझयणं निरंतरं कण्णा । भावे भणमाण, निसुतु सुरासुरे सब्वे । २५९ | सुष्टुतरं येषां पुनः कुध्यानं निरंतरं (दत्त) कर्णाः । भावेन भण्यमानं निःशृण्वन्तु सुरासुराः सर्वे ।) और वे लोग भी जिनका निरन्तर प्रत्येक का बुरा करने की ओर ही ध्यान रहता है, वे सब सुर एवं असुर, मैं जो भाव पूर्वक कह रहा हूँ उसे अच्छी तरह कान खोल कर सुन लें |२५| अण्णाणपमाएणं, अहवा वि य असूय पउग्गेणं । मिच्छामि निवेसेणं, वावि वीमंसओ वावि । २६० | ( अज्ञानप्रमादेन, अथवापि च अनुसूया प्रउग्रोण | मिथ्यात्वाभिनिवेषेण वापि विमर्षतो वापि ।) 1 अज्ञान, प्रमाद, अथवा तीव्र अह, मिथ्यात्व के अभिनिवेशवश अथवा ग्रमर्षवशात् –।२६० जइरिच्छा भएण वेरेण य पुव्वभव निबद्धण । जावितेऽज्झ जिणाणं, मणसा वि विहंसुरो पावं । २६१। ( यदृच्छया भयेन वा, वैरेण पूर्वभव निबद्ध ेन । यातोऽद्य जिनानां मनसापि विविस्वः पापं । ) [ ७७ ' अकाररण ही, भयवश अथवा पूर्व भव में निबद्ध वैर के प्रति - शोध के लिये जितने आज जिनेश्वर हैं, उनके प्रति मन में भी किसी प्रकार की दुर्भावना लावेगा - २६१ । तस्स उ नियण इहं, दोसेण पलीवियं असरणस्स | फिट्टीहि सिरं सिन्धं सुरस सारेण नीसेसं । २६२ | ( तस्य तु निजकेने हदोषेण प्रदीप्तं अशरणस्य । स्फुटिष्यति शिरं शीघ्र, सुरस्य सारेण निःशेषम् । ) उस अशरण का शिर उसके अपने इस अपराध के फलस्वरूप वज्र से जल कर शीघ्र ही पूर्ण रूपेण फटकर बिखर जायगा । २६२ ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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