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अहवा सग्गाओ च्चिय, पडणं निस्संसयं वियाणिज्जा |
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[ तित्थोगाली पइत्रय
इंदस्स विय न केवलमेयं तु सुरस्त इयरस्स | २६३ | ( अथवा स्वर्गतः किल, पतनं निःशंसयं विजानीथः । इन्द्रस्यापि च न केवलं, एतत् सुरस्य इतरस्य )
अथवा इस प्रकार का पाप पूर्ण विचार करने वाले का निश्चित रूपेण स्वर्ग से पतन हो जायगा। चाहे वह सामान्य सुरअसुर हो चाहे देवेन्द्र ही क्यों न हो। इस बात को आप सब भली भांति समझ लीजिये । २६३।
एवं ईसाणेणवि उत्तरलोगाधिवेण भणिए ।
इंदस्स वि य न केवलमेततु सुरम्स इयरस्स | २६४। ( एवं ईशानेनापि, उत्तरलोकाधिपेन भणिते ।
इन्द्रस्यापि च न केवलमेतत्त सुरस्य इतरस्य ।)
इसी प्रकार उत्तर लोकाधिपति ईशानेन्द्र ने भी कहा कि इस प्रकार का अपराध करने पर न केवल किसी सुर अथवा असुर का ही अपितु इन्द्र का भी स्वर्ग से पतन अवश्यंभावी है । २६४
' एवं ' चि परिगहिए, तंमिहिए भासिए सुरिंदेहि । मुक्क रयणुम्मीसं, दसद्भवणं कुसुमवासं । २६५ । (' एवं ' इति परिगृहीते, तस्मिन् हिते भाषिते सुरेन्द्रः । मुक्ता रत्नोन्मिश्र, दशार्द्ध वर्णा कुसुम वर्षाः ।)
सुरेन्द्रों के इस हितकर वचन को सभी सुरासुरों द्वारा " एवमस्तु" कहकर शिरोधार्य किये जाने पर रत्नवर्षा से मिश्रित पांच रंग के पुष्पों की वृष्टि की गई । २६५ ।
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चुणं नानाविहवणं, वत्थाणि च बहुविहप्पमाराई | मुक्काई सहरिसेहिं, रयणाणि य पहूयाणि | २६६ | ( चूर्णं नानविधवर्णं, वस्त्राणि च बहुविधप्रकाराणि ।
मुक्तानि सहर्षेः रत्नानि च प्रभूतानि ।)
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