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तित्योगाली पइन्नयन
[ १८३ अमरे हिं परिगहियाई, सत्तवि रयणाइ अहतिविठस्स । अमरेसु भसणेसु य, एयाई अजिय पुव्वाइं ।५८७) (अमरैः परिगहीतानि, सप्तापि रत्नानि अथ त्रिपष्ठस्य । अपरेसु भूषणेसु च. एतान्यजित पूर्वाणि ।)
त्रिपृष्ठ वासुदेव के ये सात रत्न देवों द्वारा अधिष्ठित---सेवित थे । दिव्य भूषणों में ये सदा सर्वदा अजेय माने गये हैं । ५८७।
(स्पष्टीकरण---गाथाओं के पर्यालोचन से स्पष्टतः प्रतीत होता है कि इनमें ६ रत्नों का ही नामोल्लेख एवं यत्किचित् विवरण दिया है । वासुदेव के सातवें रत्न---कौमोदकी गदा के उल्लेख वाली गाथा संभवत ताडपत्रीय प्रति में भी संभवतः नहीं लिखी गई होगी) वहइ हली वि हलं, जो पण य जिन्भं य तिक्ख वर चउं । परवंसु समरमहा, भड विढच कित्तीण जीयहरं ।५८८। (वहति हली अपि हलं, यत् पञ्च च जिह्वच तीक्ष्ण वज्र चउ[युतं] । पर-वंशे-समर महा-भट विस्तत कीर्तीनां जीवित हरम् ।)
- हली अचल बलदेव भी ऐसे हल को धारण करते हैं जो पांच जिह्वाओं एवं वज्र को तीखी चउओं (धरती को चीरने वाला हल का अधो भाग) वाला और रणांगण में शत्र ओं के महाकीर्तिशाली सुभटों के प्राणों का हरण करने वाला होता है ।५८८। साणंदं वाणिदिय, आसंकिय सत्तु मुक्कसय दलं ।। मुसलं सोभमहापुर, भंजण कुसलं वइरसारं ।५८९। (सुनन्दं वा नंदितं, आशंकित शत्रुमुत्कर्ष-दलम् । मुसलं सोभर-महापुर-भंजन कुशलं वज्रसारम् ।) १ सुनन्दं रामस्य मुसलम् । यथा
'प्रतिजग्राह बनवान्, सुनन्देनाहनच्च तम् ।"---श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १०, अ. ६७, श्लोक १६ । विशाल नगराकारमयंस्मयं गगनगामी विमानम् । यथा--- तथेति गिरिशादिष्टो, मय: पर पूरञ्जयः। पुरं निर्माय शाल्वाय, प्रादात्सोभमयस्मयम ।।७।।
(भागवत, स्कन्ध १०, प्र. ७६, श्लोक ७)