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________________ १८२ ] | तिस्थोगाली पइन्नय माला य वेजयंती. विचित्तरयणावसोहिया रम्मा । सारिक्खी जा तडियं, घणसमए इंदरायस्स ।५८४। (माला च वैजयन्ती, विचित्ररत्नावशोभिता रम्या । सदशी सा तडितया, घनसमये इन्द्रराज्ञः ।) त्रिपृष्ठ के पास अद्भुत-अलभ्य रत्नों से मण्डित एवं सुशोभित अतीव सून्दर वैजयन्ती माला थी जो कि वर्षाकालीन सघन घनघटा में चमकती हुई बिजली के समान देदीप्यमान थी ।५८४। सत्तु जण भयकरं चावं दरि यारि' जीवउच्चावं [] । जीया' निघोसेणं, सयसाहस्सी पडइ जस्स ।५८५। (शत्रुजन भयंकरं चापं दृप्तारिजीवोच्चाटम् । ज्या निर्घोषण, शतसाहस्री पतति यस्य ।) उस वासुदेव त्रिपृष्ठ के पास दर्पोन्मत्त वैरियों के मन का उच्चाटन कर देने वाला शत्राओं के लिये काल के समान भयंकर (साङ्ग) धनुष था, जिसकी प्रत्यंचा (ज्या) की टंकार मात्र से लाखों शा मूच्छित हो गिर पड़ते थे ।५८५॥ कोत्थुभ-मणी य दिव्बो, वच्छत्थल विभूसणो तिविठस्स । लच्छी ए परिग्गहीउ, रयणुत्तमसार संगहिओ ।५८६। (को स्तुभमणिश्च दिव्यो, वक्षस्थल विभूषणः त्रिपृष्ठस्य । लक्षम्याः परिगृहीतः, रत्नोत्तमसार-संगहीतः ।) त्रिपृष्ठ के पास लक्ष्मी द्वारा सेवित, उत्तमोत्तम रत्नों के सार से उत्पन्न दिव्य कौस्तुभ मणि था जो उसके वक्षस्थल का विभूषण था ।५८६। १ दरियारिदृनारिः। दरिय-दृप्त "दरियनागदप्प महणा" -दृप्तनाग दर्पमथना (प्रश्न, ४ पाश्र० द्वार) २ जीया-ज्या । धनुषो गुणे । वाच० ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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