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________________ ६० ] [ तित्थोगाली पइन्नय (आरोहतः द्वावपि शक्रो, उत्तवैक्रियाभिः पञ्चाशतम् । पञ्चाशतम् दशष्वपि, क्षेत्रोषु एन्ति द्र तम् ।) ___ उत्तर वैक्रिय लब्धि द्वारा अपने अपने पचास पचास स्वरूप बनाये हुए दोनों इन्द्र दशों क्षेत्रों में तत्काल पहुंचते हैं । १६८। पहय पडुपंडपोसा, सलोगवालग्गमहिसि परिवारा । संपत्थियाय सुरवई, जिणाण पामूलमभिचंदा ।१९९। (प्रहत पटु पंडपोषाः स्वलोकपालाग्रमहीषि परिवाराः । संप्रस्थिती सुरपती, जिनानां पादमूलमभिचन्द्राः ।) समस्त देवपरिवार और अग्रमहीषियों से परिवृत्त वे देवेन्द्र दिव्य वाद्यों के सुमधुर घोष के बीच नवजात तीर्थ करों के चरणों की सेवा में उपस्थित होने की उत्कण्ठा लिये सुरालय से प्रस्थित हुए ।१६६। संपत्ता य खणेणं, सुरच्छर संघ परिवुडा तहिणं । जाया जत्थ जिणंदा, वोच्छिण्ण पुणब्भवा गुरुणो ।२००। (संप्राप्तौ च क्षणेण, सुराप्सरासंघपरिवृताः तत्र । जाताः यत्र जिनेन्द्राः, व्युच्छिन्नपुनर्भवाः गुरुवः ।) अप्सरामों एवं विशाल देव परिवार से परिवृत्त वे देवेन्द्र पल भर में ही उन स्थानों पर पहुँचे जहाँ बड़े लम्बे अन्तराल की व्यूच्छित्ति के पश्चात् जगद्गुरु तीर्थ करों ने पुनः धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने के लिये जन्म ग्रहण किया था ।२००। पेच्छंति सव्व सक्का, जिणेवि भवसागरंतरेदीवे । इक्खागवंस जाए, सयले जगाणंद णे हत्थं ।२०१। (प्रक्षन्ति सर्वे शक्राः, जिनानपि भवसागरान्तरे दीपान | इक्ष्वाकुवंश जातान् , सकल जगानन्दस्नेहार्थम् ।) . वहाँ वे देवेन्द्र और देवी-देवगण हर्षविभोर हो अथाह अपार अनन्त भव सागर के बीच अन्तरीपों के समान, समस्त संसार को
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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