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तित्थोगाली पइन्नय ]
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(अच्छति च सविज्ञानः, धर्मे च जनस्य आदरः तदा । विद्यापुरुषाः पूज्या, धार्यते कुलं च शीलं च ।
उस समय के लोग विशिष्ट ज्ञान से सम्पन्न होते हैं। धर्म के प्रति जनमानस में बड़ा आदर होता है। वे लोग विद्या सम्पन्न गुणी पुरुषों की पूजा-सत्कार सम्मान, कूल की मर्यादाओं और शीलसदाचार का पूर्ण रूपेण पालन करते हैं ।८८५। भंगत्तास विरहिओ, डमरुल्लोलभयदंडरहिओ य । दुभिक्खं ईति तक्कर, करभरविवज्जिओ लोगो ।८८६। (भंगत्रास विरहितः, डमरोल्लोल-भय-दण्डरहितश्च । दुर्भिक्ष-ईति-तस्कर, करभरविवर्जितः लोकः ।)
उस समय के लोग भंग (फूट) त्रास, विप्लव को किल्लोलों, भय तथा दण्ड से दूर (रहित) तथा दुर्भिक्ष, ईति-भीति, चोर-लुटेरों से रहित और कर भार से मुक्त होते हैं ।८८६। रिद्धिस्थिमियसमिद्ध, भारहवासं जिणिंद कालम्मि । बहुयच्छेर पपुण्णं, उसभातो जाव वीरजिणो ।८८७) (ऋद्धिस्तिमितसमृद्ध, भारतवर्ष जिनेन्द्रकाले । बह्वाश्चर्यप्रपूर्ण, ऋषभात् यावत् वीर-जिनः ।)
प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थ कर भगवान महावीर तक के तीर्थ कर-काल में भारतवर्ष समस्त ऋद्धियों से भरापूरा-समुन्नत और समृद्ध बहुत से आश्चर्यों से परिपूर्ण था ।८८७। दससुवि वासेसेवं, दस दस अच्छेरगाई जायाई ।
ओसप्पिणीए एवं, तित्थोगालीए भणियाई ।८८८ (दशस्वपि वर्षेष्वेवं, दश दश आश्चर्यकानि जातानि । अवसर्पिण्यामेवं, तीर्थोद्गालिके भणितानि ।)
ढाई द्वीप के ५ भरत तथा ५ ऐरवत-इन दशों क्षेत्रों में प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल में निम्न दश-दश आश्चर्य हए ऐसा तीथप्रोगाली में बताया गया है ।८८८।