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[ तित्योगाली पइन्नय
तीर्थंकर काल में भारत वर्ष ऋद्धि से भरपूर - समृद्ध, अनेक अतिशयों से सम्पन्न, देवलोक के समान और गुणों से भरा पूरा
था । ५८१|
गामानगरब्भूया, नगराणि य देवलोय सरिसाणि । रायसमा य कुटुंबी, वेसमण समा य रायाणो । ८८२। ( ग्रामाः नगरभूताः, नगराणि च देवलोक सदृशानि । राजसमाश्च कुटुम्बिनः, वैश्रवणसमाश्च राजानः ।)
उस समय भारत के ग्राम नगरों के तुल्य नगर देवलोक के समान, गृहस्थ राजा के समान और राजागरण वैश्रवण के समान सर्वतः सम्पन्न थे । ८८२
चंद समा आयरिया, अम्मापियरो य देवत समाणा । मायसमाविय सासू, ससुराविय पितिसमा आसी ।८८३ ( चन्द्रसमा आचार्या, अम्बापितरौ च दैवतसमानाः । मातासमापि च श्वश्रूः श्वशुरा अपि च पितृसमा आसन् ।)
आचार्य गण चन्द्रमा के समान सौम्य शीतल एवं ज्ञान का प्रकाश करने वाले माता-पिता देव-दम्पती तुल्य, सासें माताओं के समान और श्वसुर पिता के समान थे । ८८३ |
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धम्मा धम्मविहिन्नू, विणयण्णू सव्वसोय संपण्णो । गुरुसाहू पूणरतो, सदारनिरतो जो तहया | ८८४ | (धर्माधर्म विधिज्ञः, विनयज्ञः सत्यशौचसंपन्नः । गुरुसाधुपूजनरतः स्वदारनिरतः जनस्तदा । )
उस समय के मनुष्य धर्म तथा अधर्म की विधि के ज्ञाता, विनोत, सत्य- शौच सम्पन्न, गुरु एवं साधु की पूजा सत्कार में सदा तत्पर और स्वदार-संतोषी होते थे ८८४ |
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अच्छय सविण्णाणो, धम्मे य जणस्स आयरो तहया । विज्जा पुरिसा पुज्जा, धरिज्जर कुलं च सीलं च । ८८५ |