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तत्थोगाली पइन्नय]
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पावा पावायारा, निद्धम्मा धम्मबुद्धि परिहीणा । रोदा कुणिमाहारा, नरा य नारी य होहिंति ८७८। (पापाः पापाचाराः, निधर्माः धर्मबुद्धि-परिहीनाः । रौद्राः कुणिमाहाराः, नराश्च नार्यश्च भविष्यन्ति । ___ज्यों-ज्यों काल व्यतीत होता जायेगा त्यों-त्यों नर-नारीगण पापबुद्धि, पापाचारी, धर्मबुद्धि से हीन अधर्मी, रौद्र रूप एवं स्वभाव वाले और कुत्सितभोजी होंगे।८७८। जह जह सिज्झइ कालो, तह तह सज्झाएज्झाण करणाई । सिझंति जाव तित्थं, भणियं सज्झाय वंसो य ८७९। (यथा यथा सिद्धयति कालः, तथा तथा स्वाध्यायध्यानकरणानि । सिद्धयन्ति, यावत् तीथ, भणितः स्वाध्यायवंशश्च ।) - ज्यों-ज्यों समय बीतता जायेगा. त्यों-त्यों स्वाध्याय-ध्यान आदि क्रियाए तीर्थ की विद्यमानता तक निरन्तर क्षीण होती जायेंगी। यह स्वाध्याय वंश का कथन समाप्त हुआ ।८७६। जिणवयणव्य संपत्ते सज्झाय रायवंस आहारे [आयारे] । सुव्बउ जिणवर भणियं, तित्थोगालीए संखे ।८८०। (जिनवचनमिव सम्प्राप्ताः, सज्झाय-राजवंश-आहाराः । शणोतु जिनवर भणितं, तीर्थोद्गालिके संक्षेपम् ।)
स्वाध्यायवंश, राजवंश और आहार अथवा प्राचार आदि सब कुछ जिन-वचनों के अनुसार हो आज तक चला आ रहा है। तीर्थओगालो में तीर्थकर प्रभू ने इनके सम्बन्ध में जो कहा है, उसे संक्षिप्त रूप में सुनिये ।८८०। रिद्धिस्थिमियसमिद्ध, भारहवासं जिणिंदकालम्मि । बहु अइसय संपण्णं, सुरलोगसमंगुण समिद्ध८८१॥ (ऋद्धिस्तिमित समृद्ध, भारतवर्ष जिनेन्द्रकाले । बह्वतिशयसम्पन्न, सुरलोक समं गुणसमृद्धम् ।)