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________________ ३७२ ] [ तित्थोगाली पइन्नय (अलोके प्रतिहताः सिद्धाः, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता। इह बोन्दि (शरीर) त्यक्त्वा, तत्र गत्वा सिद्धयन्ति ।) अलोक में सिद्धों की गति प्रतिहत (अवरुद्ध) हुई अर्थात् रुकी। वे लोक के (ऊपरी) अग्र भाग में प्रतिष्ठित हैं। यहां (तिर्यक लोक में) देह त्याग, वहां लोकान में जाकर सिद्ध होते हैं । १२३८। दीहं वा हस्सं वा, जं संठाणं तु आसि पुव्वभवे । तत्तो तिभाग हीणा, सिद्धाणोगाहणा भणिता ।१२३८) (दीर्घ वा ह्रस्वं वा, यत् संस्थानं तु आसीत् पूर्वभवे । तत्तः त्रिभागहीनाः, सिद्धानामवगाहनो भणिता ।) पूर्व भव में, दीर्घ अथवा ह्रस्व जो भी शरीर का संस्थान था, उससे तीन भाग कम अर्थात् एक चौथाई अवगाहना कही गई है ।१२३८। जं संठाणं तु इहं, भवं चयन्तस्स चरिम समयम्मि । आसी य परासघणं, तं संठाणं तहिं तस्स ।१२३९) . (यत् संस्थानं तु इह, भवं त्यजतः चरम समये । आसीत् च प्रदेशघनं, तत् संस्थानं तत्र तस्य ।) यहां अन्तिम काल में भव अर्थात् जन्म-मरण का अन्त करते समय शरीर के प्रदेश घन रूपी शरीर का संस्थान था वही संस्थान उस सिद्धयमान व्यक्ति का सिद्ध हो जाने पर वहां उस ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी (सिद्धशिला) पर रहता है ।१२३६। उत्ताण उच्च पासिल्ल, उच्चट्ठियओनिसन्नओ चेव । , जो जह करेइ काली (कालं) सो तह उववज्जए सिद्धो ।१२४०। (उत्तान-उच्चपाश्विल, उच्चैस्थितःनिषण्णश्चैव । यः यथा करोति कालं, स तथा उपपद्यते सिद्धः । )
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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