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तित्थोगाली पइन्नय ]
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एवं नित्यकालतृप्ताः अतुलं निर्वाणमुपगताः सिद्धाः । शाश्वतमव्यावाधं, तिष्ठन्ति सुखिनः सुखं प्राप्ताः ।)
उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त हुए सिद्ध अतुलरूपेण नित्यकाल तृप्त हैं । वे शाश्वत अव्याबाध शिव-सुख को प्राप्त कर परमानन्द में विराजमान है १२५२। तत्थ वि य ते अभेदा, अवेयणा णिम्ममा णिसंगा य । संजोग बिप्पमुक्का, अपएसा निच्च एक संगणा ।१२५३। (तत्रापि च ते अभेदा, अवेदनाः निर्ममा निस्संगाश्च । संयोग विप्रमुक्ता, अप्रदेशा नित्यक संस्थाना ।)
वहां पर (सिद्ध क्षेत्र में) वे भेद रहित, वेदना रहित, ममत्व रहित निस्संग, संयोग से विप्रयुक्त प्रदेशों से रहित, नित्य एक ही संस्थान में स्थित-।१२५३। तिथिन्न सव्वदुक्खा, जाइ जरा मरण बंधणविमुक्का । अठवावाहं सोक्खं , अणुहोति सासयं सिद्धा ।१२५४। (निस्तीर्ण सर्वदुःखाः, जातिजरामरणबंधनविमुक्ताः । अव्याबाध सौख्यं, अनुभवन्ति शाश्वत सिद्धाः ।)
सब दुःखों से पार उतरे हए और जाति (जन्म), जरा, मरण के बन्धनों से विमुक्त सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव कर रहे हैं ।१२५४। एसा य पय सहस्सेण, वन्निया समणगंधहस्थीणं । पुटठेणऊ रायगिहे, तित्थोगालीउ वीरेण ।१२५५। (एषा च पद सहस्रण, वर्णिता श्रमणगंधहस्तीभ्यः। पृष्टेन तु राजगृहे, तीर्थोद्गाली तु वीरेण ।)
भगवान् महावीर ने राजगृह नगर में, प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रमणों में गन्ध-हस्तियों के समान श्रेष्ठ गणधरों को एक लाख पदों द्वारा इस तोर्थ-योगाली का वर्णन किया ।१२५५॥