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________________ ३७८ ] [तित्थोगाली पइन्नय सोउंतित्थोगालिं, जिणवरवेसहस्प वद्धमाणस्स । पणमह सुगइगयाणं, सिद्धाणं निहितट्ठाणं ।१२५६। (श्रुत्वा तीर्थोद्गालिं, जिनवरवृषभास्य वर्धमानस्य । प्रणमत सुगतिगतान्. सिद्धान् निष्ठिता र्थान् ।) जिनेश्वरों में वृषभ तुल्य वर्धमान द्वारा वरिणत तीर्थ प्रवाहों को सुनकर सुगति-मुक्ति में विराजमान सर्वकाम सिद्ध सिद्धों को प्रणाम करो ।१२५६। भद सब जगुज्जोयगस्स, भद्दजिणस्स वीरस्स । भद सुरासुर नमं सियस्स, भदं धुअरयस्य १२५७/ (भद्र सर्व जगदुद्योत कस्य, भद्र जिनस्य वीरस्य । भद्रसुरासर नमस्यितस्य, भद्रं धुतरजसः ।) केवल्यालोक से समग्र संसार को प्रकाशित करने वाले का भद्रकल्याण हो, जिनेन्द्र वीर का कल्याण हो, देवासरों द्वारा वन्दनीय का कल्याण हो कर्मरज को नष्ट कर देने वाले का कल्याण हो ।१२५७। गुण गहण भवण सुतरयण भरित दंसण विसुद्ध रत्थागा । संघनगर ! भईते, अक्खंड चारित्र पागारा ।१२५८। (गुण गहन भवन, श्रुतरत्न भरित दर्शन विशुद्ध रथ्याक ! संघनगर ! भद्रते, अखण्ड चारित्र प्राकारः ।) अमित गुण रूपी भवनों से व्याप्त होने के कारण अति गहन ! आचारांगादि अनेक सुखद श्रुतरत्नों से परिपूर्ण ! मिथ्यात्व आदि कचरे से रहित विशुद्ध दर्शन रूपी रथ्याओं वाले ! और अखण्ड चारित्र रूपी प्राकार द्वारा सदा सुरक्षित प्रो संघ-नगर ! तुम्हारा कल्याण हो ।१२५८। जं उद्धित सुयाओ, अहव मतीए य थोव दोसेण । तं च विरुद्ध नाउ, सोहियव्वं सुयधरेहिं ।१२५९।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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