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| तिस्थोगाली पइन्नय
स्पिष्टीकरण :-दशों क्षेत्रों के इस चौवीसी के २४० तीर्थंकरों में से इस प्रकार उपरि चचित ३० तीर्थ कर निषिद्या---पर्यंकासन से सिद्ध हुए। दोण्णि सया उ दहुत्तर, जिणवर चंदाण केवलीणं तु । दससु वि वासेसु सेसा, वाघारियपाणिणो सिद्धा ५५७। (द्वशते तु दशोत्तर, जिनवरचन्द्राणां केवलिनां तु । दशस्वपि वर्षेषु शेषाः व्याधारितपाणयः सिद्धाः ।)
दशों क्षेत्रों के अवशिष्ट २१० केवलज्ञानी जिनेश्वर व्याघारितपाणि (प्रलम्बभुज) अर्थात् कायोत्सर्ग मुद्रा में सिद्ध हुए।५५७। चंदाणण उसभजिणो, आइगरा चोदसेण भत्तेण । एते य दसवि सिद्धा, दससु वि वासेसु जिणचंदा ।५५८। (चन्दाननः ऋषभजिनः आदिकराश्चतुर्दशेन भक्तन । .. एते च दशाऽपि सिद्धा, दशस्वपि वर्षेषु जिनचन्द्राः ।)
चन्द्रानन और ऋषभ देव क्रमशः पांच ऐरवत और पांच भरत इन दशों क्षेत्रों में धर्म को आदि करने वाले ये १० तीर्थंकर दशों क्षेत्रों में चतुर्दश भवत अर्थात् छः उपवासों की तपस्या से सिद्ध हुए ।५५८। (५५६ वीं गाथा मूल प्रति में नहीं है।) भरहे य बद्धगाणो, एरवए वारिसेण जिणचन्दो। छट्ठण दसविसिद्धा, दससु विवासेसु जिणचंदा ।५६०। (भरते च वर्द्धमानः, ऐरवते वारिषेणजिनचन्द्रः । पष्ठेन दशाऽपि सिद्धाः, दशष्वपि वर्षेषु जिनचन्द्राः ।)
भरत क्षेत्र में वर्द्धमान और एरवत क्षेत्र में वारिषेण ये दशों तीर्थंकर दशों क्षेत्रों में षष्ठ भक्त अर्थात् दो उपवासों की तपस्या से सिद्ध गति को प्राप्त हुए ।५६०।
(स्पष्टी करण:--इस प्रकार ढाई द्वीप के ५ भरत और ५ एरवत इन दश क्षेत्रों में प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के २४० तीर्थकरों में से ऋषभादि दश प्रथम तीर्थंकर ६ उपवासों की तपस्या से सिद्ध हुए।)