________________
तित्योगालो पइन्नय] (नाप्यस्ति मनुष्याणां, तद् सौख्यं नापि च सर्व देवानाम् । यत् सिद्धानां सौख्यं, अव्यावाधं उपगतानाम् ।)
अव्याबाधा मोक्ष में गये हुए सिद्धों को जो सुख है. वह सुख वस्तुतः न तो मनुष्यों में से किसी भी मनुष्य को प्राप्त है और न सब देवताओं में से किसी एक देव को ही ।१२४६। .. सुरगण सुह संमत्त, सव्वद्धा पिंडितं अणंत गुणं । न वि पावइ मुत्तिसुहं अणंताहिं विवग्गवग्गूहिं ।१२४७।। (सुरगण-सुखसमस्तं सर्वाद्धा-पिण्डितं अनत्तगुणम् । नापि प्राप्नोति मुक्तिसुखं, अनन्तैरपि वल्ग वल्गभिः ।)
संसार के समस्त देव समूहों के समग्र सुख को एकत्र कर उसे अनन्त गुणित किया जाय तो भी वह पिण्डीभूत देव सुख मुक्ति के सुख के अनन्तवें भाग के अनन्तवें भाग की भी तुलना नहीं कर सकता ।१२४७। सिद्धस्ससुहोरासी, सव्वद्धा पिंडिआ जइ हवेज्जा । सो-णंत भागभइओ, सव्वागासे न मायेज्जा ।१२४८। (सिद्धस्य सुखराशिः, सर्वाद्धापिण्डिता यदि भवेत् । स अनंत भागभजितः, सर्वाकाशे न मायेत् ।)
(दूसरी ओर) एक सिद्ध की सुख राशि यदि सब तरह से पिण्डीभूत की जाय और उसको अनन्त भागों में विभक्त किया जाय तो सिद्ध सुख का वह 'अनन्तवां भाग सम्पर्ण आकाश में भी नहीं मायेगा-नहीं समा सकेगा ।१२४८। जहनाम कोइ मेच्छो, नगरगणे बहु विहे वि जाणंतो। न वएइ परिकहेउ, उवमाए तहिं असंतीए ।१२४९।