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[ तित्योगाली पइन्नय
तथा भरत एवं ऐरवत क्षेत्रों में, बाल्यकाल में पूर्णचन्द्र के समान मुख वाले तीर्थङ्करों का जन्म होने पर देवताओं द्वारा उत्तर कर स्थित शिलाओं पर जन्माभिषेक किया जाता है | २१६ अह सो सोहम्मवती, सहिओ बत्तीस सुरवरिंदेहिं । दक्खिण- सिलाउ पंचवि, सहस्स पत्ताणणा पत्तो | २२० । (अथ सः सौधर्मपतिः सहितः द्वात्रिंशैः सुरवरेन्द्रः । .
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दक्षिण शिला पंचापि, सहस्र पत्राननाः प्राप्ताः । )
तत्पश्चात् ३२ इन्द्रों सहित सहस्राक्ष सौधर्मेन्द्र पांचों दक्षिण दिशिस्थ शिलाओं पर पहुँचा । २२० ।
अह सो ईसाणवती, सहिओ बत्तीस सुरवरेन्द्रः ।
उत्तर सिलाउ पंच वि, सहस्स पचाणणो पत्तो । २२१ ।
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( अथ स ईशानपतिः सहितो द्वात्रिंश- सुरवरेन्द्रः । उत्तरशिला पंचापि सहस्र पत्राननाः प्राप्ताः । )
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इसके पश्चात् ईशान देवलोक का अधिपति ईशानेन्द्र भी बत्तीस इन्द्रों सहित उत्तर दिशा में स्थित पांच शिलाओं पर पहुँचा. ।२२१।
तो तत्थ पवर कंचन, मयंमि सिंहासणे निवेसित्ता । इंदो जिदिचंदे, उच्छंगेहि बसी य । २२२ |
( ततः तत्र प्रवर कंचनमये सिंहासने निवेशयित्वा ।
इन्द्रो जिनेन्द्र चन्द्रान् उत्संगैः वहन्ति च ।)
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तदनन्तर वहां उत्कृष्ट कोटि के स्वर्ण से निर्मित सिंहासनों पर निवेशित (स्थापित) कर इन्द्र ने उन जिनेन्द्रचन्द्रों को अपनी गोद धारण किया । २२।
छज्जंति सुरवरिंदो, उज्वंग गए जिणे धरेमाणो ।
अभिनव जाए कंचन, दुमेन्त्र हिमपवर - धरिमाणो । २२३। ( छाजन्ति सुरवरेन्द्राः, उत्संगगतान जिनान् धार्यमाणः । अभिनवजातान् कंचन द्र मानिव हिमप्रवरः धार्यमाणः 1)