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तित्थोगाली पइन्नय ]
पुवेण पंडुक्कव्वल, अवरेण अइ पंडुकंवला होइ । रतार चकंबल, सिला य दो दक्खिणुत्तरओ २१६ । (पूर्वेण पाण्डु कंबला, अपरेण अतिपाण्डु कंबला भवति । रक्तातिरक्तकंबले, शिले च द्व े दक्षिणोत्तरतः ।)
प्रत्येक चूला के पूर्व में पाण्डुकम्बलाशिला, पश्चिम में प्रति पाण्डुकम्बला शिला, दक्षिण में रक्तकम्बला शिला और उत्तर दिशा मे अतिरक्तकम्बला शिला होता है । २१ ।
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पुव्वावसु दो दो, सिलासु सीहासणाई रम्माई । चंदद्ध दक्खि गुत्तर, सिलासु एक्केक्कयं भणियं । २१७| पूर्वापरासु [रयोः ] द्व े द्व े, शिलापु [लयो: ] सिंहासनानि रम्याणि । चन्द्रार्द्ध दक्षिणोत्तर, शिलापु [लयोः ] एकैकं भणितम् ।)
प्रत्येक शिला के पूर्व तथा पश्चिम भाग में दो दो तथा दक्षिणोत्तर दोनों अर्द्धचन्द्राकार भागों पर एक एक, इस प्रकार चारों दिशाओं में चारों भागों पर प्रतीव सुन्दर ६ सिंहासन होते हैं । २१७
सीतासीतोयाणं, उभओ कूलुब्भवा जिनवरिंदा | अभिसिंचिंते सुरेहि, जम्मे पुव्वावर सिलासु । २१८| ( सीतासीतोदयोरुभयोः कुलोद्भवाः जिनवरेन्द्राः | अभिसिंच्यन्ते सुरैः, जन्मनि पूर्वापर शिलापु ।)
सोता तथा सीतोदा नदियों के दोनों तटों पर उत्पन्न होने वाले तीर्थङ्करों का देवताओं द्वारा पूर्व तथा पश्चिम दिशाओं में स्थित शिलाओं पर जन्माभिषेक किया जाता है । २१८ |
भर वयजिनिंदा, बालते पुण चंद सरिस मुहा | अभिसिंचिंत सुरेहिं; जंमे उत्तर सिलासु । २९९ । (भरतैरवत जिनेन्द्राः, बालत्वे पुनश्चन्द्र सदृश मुखाः । अभिसिंच्यन्तं सुरैः, जन्मनि च उत्तर शिलापु ।)