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________________ तित्योगाली पइन्नय ] [ ६७ गोद में विराजमान जिनेन्द्रों को धारण किये हुए इन्द्र सद्यो - त्पन्न कांचन वृक्षों को धारण किये गिरिराज हिमाद्रि के समान सुशोभित हो रहे थे । २२३। अह अच्चुयकप्पवती, घुयकलि कलसाणं जिणवरिंदाणं । अभिसेयं काउमणो, अभिओगे सुरवरे भणः । २२४ ॥ ( अथ अच्युतकल्पपतिः, धुतकलिकलुषाणां जिनवरेन्द्राणाम् । अभिषेकं कतु मना, आभियोगिकान् सुरवरान् भणति ) तदनन्तर दुष्कृतों की कालिमा को धो डालने वाले जिनवरों का जन्माभिषेक करने की अभिलाषा से अच्युत् कल्प नामक स्वर्ग के इन्द्र ने अपने सेवक सुरश्र ेष्ठों को प्रादेश दिया । २२४। तित्थसरियामहादह, चउ उहिजलं च दिव्य कुसुमं च । आरोह इहं सिग्धं जं विय भभिए । २२५ ॥ (तीर्थसरिता महाद्रह - चतुरुदधिजलं च दिव्य कुसुमं च । आनयत इह शीघ्र यदपि चेष्टमभिषेके ।) , तीर्थ - नदियों, महाद्रहों तथा चारों समुद्रों का जल, दिव्य पुष्प एवं जन्माभिषेक के लिये अभीष्ट सभी प्रकार की सामग्री शीघ्रातिशीघ्र लेकर आओ । २२५। संमं पडिच्छिउणं, सुरवरवसभाणं तं सुरा वयणं । आर्णेति विमल सलिलं सब्र्व्वसु ं जहुत ठाणेसु ं । २२६ | , (सम्यक् प्रतीच्छ्य, सुरवरवृषभानां तत् सुरा वचनम् । आनयन्ति विमल सलिलं सर्वेभ्यः यथोक्त स्थानेभ्यः । ) 1 सुरेश्वरों के आदेश को समीचीनतया हृदयाङ्कित एवं शिरो - धार्य कर देवगण सभी यथोक्त स्थानों से पवित्र जल लाते हैं । २२६ । सब्वोपहिसिद्धत्थं, गहरियालिय कुमुमगं च चुण्णे य । आर्णेति ते पवित्र, दह नइतडतह महिंद सुरा | २२७|
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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