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[ तिस्थोगाली पइन्नय
(सौषधिसिद्धार्थ , गहनमलीक कुमुमकं च चूर्णान् च । आनयन्ति ते पवित्रं, दहनदीतटतः महेन्द्र-सुराः ।)
महेन्द्र स्वर्ग के वे सुरगण द्रहों और महानदियों के तटों से सौषधि सिद्ध पवित्र एवं शुद्ध पुष्प और चूर्ण लाते हैं ।२२७। ता अच्चुय कप्पवई, सुवन्नमणिरयणभोम कलसेहिं । पउमुप्पलपिहाणेहि, कुसुम गंधुदग भरिएहि ।२२८। (ततः अच्युतकल्पपतिः, स्वर्ण मणिरत्नभौमकलशैः । पद्मोत्पलपिधान, कुसु मगंधोदकभरितः ।)
अभिषेक हेतु आवश्यक सभी सामग्री को जुटाने के पश्चात् अच्युतेन्द्र पुष्पों की सम्मोहक सुगन्धियों से सुवासित जल से पूर्ण एवं पद्मपत्रों से ढके स्वर्ण, मणि, रत्न और (अलभ्य) मिट्टी के कलशों द्वारा-२२८॥ अभिसिंचइ दसवि जिणे, सपरिवारो पहट्ट मुहकमलो। पहय पडु पडह, दुंदुहि जयसदुघोसणरवेणं ।२२९। (अभिसिंचति दशानपि जिनान् , सपरिवारः प्रहृष्टमुखकमलः । प्रहत पटु पटह, दुदुभिजयशब्दोद्घोषणरवेण ।)
परिवार सहित हर्षोत्फुल्लवदन मुद्रा में प्रताडित दिव्य पटहों, भियों आदि वाद्यों की सुमधुर ध्वनि और "जय-जय" के गगनभेदी घोषों के बीच दसों ही जिनेश्वरों का जन्माभिषेक करते हैं
।२२६। गोसीसचंदणरसं, सुमणं सोहावियं य दिव्वं च । सलिलं च तेयजणणं, जिणाणं उवरि वुहंति सुरा ।२३०। (गोशीर्षचन्दनरसं, सुमनंज्ञं शोभावितं च दिव्यं च । सलिलं च तेजजननं, जिनानामुपरि वाहयन्ति सुराः ।)
सुरवृन्द उन जिनेश्वरों पर आह्लाद शोभा और तेजवर्द्धक दिव्य गोशीर्ष चन्दन का रस तथा जल वर्षाते हैं ।२३०।