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तित्योगाली पइन्तय ]
सुरगाहियकलसमुह - निग्गएण गंधोदएण विमलेण । पउम महद्दहनिग्गय, गंगामलिलोह सरिसेणं । २३१। (मुरगृहीतकलशमुखनिर्गतेन गंधोदकेन विमलेन । पद्ममहाद्रह निर्गत गंगासलिलौघसदृशेन )
पद्म महाद्रह से उद्गत गंगा महान् जलप्रवाह के समान देवतानों के हाथों में ग्रहण किये गये अपरिमित कलशों के मुंह से निकले पवित्र सुगन्धित जल की धाराओं के ।२३१। उवरि निवड तेणं, बालजिणे तेयरासिं संपण्णे ।
अहि दिपनि तर्हि, पयपरिसित हुयवहेव्व | २३२ ।
( उपरि निपतं तेन चालजिनाः तेजराशिसंपन्नाः ।
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अधिकं दिव्यन्ति तत्र, पय' परिषिक्तः हुतवह इव । )
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उत्तमांग और सभी मांगों पर गिरने के फलस्वरूप वे सभी सद्यः जात तीर्थ कर तेजोपुंज से सम्पत्र हो घृतसिंचित अग्नि की ज्वाला के समान वहां अधिकाधिक देदीप्यमान होने लगे । २३२ | तो जिणवरा मिसेए, नट्टति विवि रूववेधरा | ससुरासुर गंधव्या, ससिद्ध विज्जाहरा मुइया | २३३ | ( ततः जिनवराभिषेके नत्यन्ति विविधरूपवेषधराः । ससुरासुरगन्धर्वाः, ससिद्धविद्याधराः मुदिताः । )
तदनन्तर जिनवरों के जन्माभिषेक में सुर, असुर, गन्धर्व, सिद्ध और विद्याधर प्रमुदित हो अनेक प्रकार के रूप एवं वेष धारण कर नृत्य करते हैं । २३३।
ततविततं घणघुसिरं वज्जंवाईति के सुरवसहा ।
गायंति ससिंगार, सत्रसरसी भरं गेयं । २३४ |
(तत विततं घनघोषक वाय वादयन्ति केचित् सुरवृषभाः ।
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गायन्ति म गारं सप्तस्वरसीभरं गेयम् ।)
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१ श्रत्र पय शब्दो घृतार्थे प्रयुक्तो प्रतीयते ।