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________________ ७० [ तित्थोगाली पइन्नय अनेक सुरश्रेष्ठ गगन को गुजरित कर देने वाली ताल के साथ, सघन वारिद घटा के गर्जन तुल्य गम्भीर घोष करने वालो वाद्य यन्त्र बजाते हैं तथा कतिपय देव शृगार रस से ओत-प्रोत सातों स्वरों में अति मधुर सम्मोहक गीत गाते हैं ।२३४॥ चउ अभिणय संजुत्त, उणयालीसं-गहार पडिपुण्णं । सुललिय पय विच्छेदं, नट्ट दाइंति तत्थ सुरा ।२३५॥ (चतुरभिनयसंयुक्त, एकोनचत्वारिंशदंगहार प्रतिपूर्णम् । सुललितपदविच्छेदं, नाट्यं दापयन्ति तत्र सुराः ।) जिनजन्म महोत्सव के उस पवित्र एवं सुखद स्वणिम सुअवसर पर कतिपय देवगण चारों प्रकार के अभिनय से संयुक्त, उनचालीस प्रकार की भावपूर्ण अंगभंगिमाओं से परिपूर्ण और परम लालित्य से ओतप्रोत अति सुन्दर नाट्य प्रस्तुत करते हैं ।२३५॥ . वग्गंति फोडयंति य, तिवईविंदति विविहवेसधरा । वासंति जलधराई य सविज्जुयं सथणियं तहि अण्णे ।२३६। (वल्गन्ति स्फोटयन्ति च त्रिपदी छिन्दन्ति विविधवेषधराः । वर्षन्ति जलधराः च, सविद्यु तं सस्तनितं तत्र अन्ये ।) ___ अनेक प्रकार के वेष धारण किये कतिपय दव मदोन्मत्त हाथियों की तरह चिंघाडते, कई देव वायु को प्रकम्पित कर देने वाली ध्वनि के साथ खम्भ ठोकते, कतिपय देव त्रिपदी का विच्छेद करते एवं कतिपय देवगण बादलों की गड़गड़ाहट एवं बिजली की चकाचौंध के साथ जलधाराओं की वर्षा करते हैं ।२३६। हयहिंसिय गयगज्जिय, रह घणघण सीहनाय जय सद्दे । कुणमाणेहिं सुरेहिं, रसईव य गगणं दलइ भूमी' ।२३७। (हयहिंसित, गजगर्जित (बल्गित) रथ-घणघण सिंहनाद जयशब्दानि क्रियमाणैः सुरैः ह्रसस्सतीव च गगनं दलति भूमिः ।) १ "रसइ गगणंगणं दलइ भूमी" इति पाठे सति चमत्कृति सविशेषा शोभते । (रसति गगनांगनं दोलयति भूमिः)
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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