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तित्थोगाली पइन्नय ]
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उत्तर में भद्रबाहु कहते हैं--"वह शिवगृह-शून्य घर के अन्दर अपने पाठ का परावर्तन कर रहा है। आप वहां जाइये। वहीं आप उसे स्वाध्याय-ध्यान में निरत देखेंगी" ।७५८। इयरो वि य भयणीओ, दट्टण तत्थ थूलभदरिसी । चिंतेइ गारवयाए, सुयइदि ताव दाहेमि |७५९। (इतरोऽपि च भगिन्यः, दृष्ट्वा तत्र स्थलभद्रर्षिः । चिन्तयति गारवतया, श्रुतर्द्धि तावत् दर्शयामि ।)
ऋषि स्थूलभद्र ने वहां (प्राती हुई) अपनी बहिनों को देख कर गर्व के साथ उन्हें अपनी श्र तऋद्धि का चमत्कार दिखाने का विचार किया ।७५६। • सोधवल वेसभमेचो, जातो विक्किण्ण केसर जडालो ।
पुण्णसुक्क ससि सरिच्छो, कुंजरकुलभीसणो सीहो ।७६०। (स धवलवृषभ मात्रः जातो विकीर्ण केसर जटालः। पूर्ण शुक्ल शशि सदृशः, कुञ्जरकुल भीषणः सिंहः ।)
____ स्थूलभद्र ने अपनी विद्या के बल से बिखरी हुई जटाजूट केसर वाले श्वेत वृषभ तुल्य, शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के चन्द्र के समान प्रकाशपूर्ण और हाथियों के कुछ के लिये भयोत्पादक सिंह का रूप धारण कर लिया ७६०। तं सीहं दट्टणं, भीयाउ शिवघरा विनिस्सरिया । भणितो य ताहि गुरु, एत्थ हु सीहो अतिगतो चि ७६१। (तं सिंहं दृष्ट्वा, भीताः शिवगृहात् विनिस्सृताः । भणितश्च ताभिगुरु, अत्र खलु सिंहोऽतिगत इति ।)
उस सिंह को देख कर वे सातो बहिनें डरी और उस शून्य घर से बाहर निकल गई। उन्होंने भद्रबाहु के पास जाकर कहा कि वहां तो सिंह है ।७६१। नत्थीत्थ को वि सीहो, सो चेव य एस भाउओतुब्भं । इड्ढी पत्तो जातो, सुयस्स इडिं पयंसेइ ।७६२।