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[ तित्थोगालो पइन्नय
(नास्त्यत्र कोऽपि सिंहः, स चैव चैषः भ्रातृकः युष्माकम् । ऋद्धिपात्रो जातः, श्रुतस्य ऋद्धिं प्रदर्शयति ।)
भद्रबाहु ने कहा---''यहां कोई सिंह नहीं है, वह तुम्हारा भाई ही है । वह ऋद्धियों का पात्र अर्थात् ऋद्धि घर बन गया है और श्रु तऋद्धि का प्रदर्शन कर रहा है ।७६२। तं वयणं सोऊणं, तातो अंचियतणुरुहसरीरा। संपत्तिया उ तत्तो, जत्तो सो थूलभदरिसी।७६३। (तद् वचनं श्रुत्वा, तास्तु अंचिततनुरुहशरीराः । सम्प्राप्तास्ततः यत्र स स्थूलभद्र ऋषिः ।)
भद्रबाहु के वचन सुनते ही हर्षवशात् रोमांचित हुई वे सातों साध्वियां उस स्थान पर पहुंची जहां स्थूलभद्र ऋषि थे ।७६३। जह सागरोव्व उव्वल मतिगतो पडिगतो सयं ठाणं । स पलियंक निसन्नो, धम्मझाणं पुणो झाइ ७६४। (यथा सागरो वा उद्वल मतिगतः प्रतिगतः स्वकं स्थानम् । स पर्यकनिषण्णः, धमध्यानं पुनः ध्याति ।)
उद्वलित समुद्र जिस प्रकार उद्वेलन के पश्चात् पुनः अपने स्थान पर चला जाता है ठीक उसी प्रकार स्थूलभद्र भी सिंह के रूप से पूनः निज स्वरूप में आकर पर्यकासन से बैठ कर पुनः धर्म ध्यान में संलग्न हुए ।७६४। दुपुटुमहुकंठ, सो परियट्टोइ ताव पाढमयं । भणियं च ताहि भाउम, सीहं ठूण ते भीया ।७६५। (द्र त पुष्ट मधुरकण्ठेन स परावर्तयति तावत्पाठमयम् । भणितं च ताभित्रक ! सिंह दृष्ट्वा तव भीताः )
वे मधुर स्वर में द्रत गति से अपने पाठ का परावर्तन करने लगे। बहिनों ने कहा...' भैय्या! हम तो आपके सिंह को देख कर डर गई थीं।७६५॥