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________________ तित्थोगाली पइन्नय ] [२०३ (रोषेण सुसुकायन्. स कत्यपि दिनानि तथैव स्थास्यति । अथ नगर देवता तं, आत्मीया भणिष्यति राजन् ।) वह कतिपय दिनों तक क्रोध से तमतमाता हुआ श्रमण संघ को अवरुद्ध कर उनके साथ इसी प्रकार का व्यवहार करता रहेगा। अन्ततोगत्वा उसके नगर का अधिष्ठाता देव उससे कहेगा--1६५५॥ किं तूरसि मरीउ, जे निसंस किं बाहसे समणसंघ । सव्वं ते पज्जत्तं, नणु कइ दीहं पडिच्छाहि ।६५६। (किं त्वरसे मतु यत्, नृशंस किं बाधसे श्रमणसंघम् । सर्व ते पर्याप्तं, ननु कति दिवसानि प्रतीच्छसि ।) . क्या तुम शोघ्र ही मौत के मुंह में जाना चाहते हो जो श्रमण संघ को इस प्रकार पीड़ा पहुँचा रहे हो? तुम्हारी दुष्टता सीमा का अतिक्रमण कर चुकी है, अब तुम अधिक दिनों तक जोना नहीं चाहते ? ।६५६। उल्लपडसाडओ सो, पडिओ पाएसु समणसंघस्स । कोवो दिट्ठो भयवं कुणह पसायं पसाएमि ।६५७। (आर्द्र पटशाटकः स, पतितः पादेषु श्रमणसंघस्य । कोपः दृष्टः भगवन् ! कुरुत प्रसादं प्रसादयामि ।) नगर देवता के ये वचन सुनते ही राजा चतुर्मुख भयत्रस्त हो श्रमण संघ के चरणों में गिर पड़ेगा। उसके सब वस्त्र अस्त-व्यस्त हो जायेंगे। वह गिड़गिड़ा कर कहेगा:--"भगवन् ! मैंने आपके देखा अब मुझ पर दया कीजिये। मैं आपकी प्रसन्नता का प्रार्थी हूँ' १६५७। . किं अम्ह पसाएणं, तह वि य बहुया, तहिं न इ(अ)च्छंति । घोर निरंतर वासं. अह दिवा राई वासिहिती ।६५८। (किमस्माकं प्रसादेन, तथापि च बहुकाः तत्र न इच्छन्ति (तिष्ठन्ति)। घोर निरन्तर वर्षा, अथ दिवारानं वर्षिष्यति ।)
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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