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तित्थोगाली पइन्नय]]
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वे सभी मानव य गल सबके प्रति अभियोग रहित, समान रूप से सभी 'मैं इन्द्र हं' इस प्रकार की भावना वाले वज्र ऋषभ संहननधारी, सुडौल देहधर, सुगठित एवं सुन्दर अगोपांग युक्त होते हैं।३८। ते नरगणासुरुवा, सुभगा सुहभागिणो सुरभिगंधा । मिगरायसरिसविक्कम, वरवारण मतसरिसगई ।३९। (ते नरगणाः सुरूपाः, सुभगाः सुखभागिनः सुरभिगंधाः । मृगराजसदृशविक्रम, --वरवारणमत्वसदृशगतयः ।)
वे नर-नारी गण परम सुन्दर, सुभग, सूखभाजन, सुवासित मनमोहक सुगन्ध सिंह के समान पराक्रमी और मदोन्मत्त श्रेष्ठ गजराज की गति सदृश गमन करने वाले होते हैं ।३६। पगइपयणुकसाया, अप्पिच्छा अणिहिसंचयअचंडा । बत्तीस लक्खणधरा, पुढवी पुष्फफलाहारा ।४०। (प्रकृति प्रतनुकषायाः, अल्पेच्छा अनिधि-संचय-अचण्डाः । द्वात्रिंशल्लक्षणधराः, पृथ्वी-पुष्प फलाहारा ।)
वे सब स्वभावतः क्षीण कषाय, स्वल्पेच्छ निधि एवं संचयविहीन शान्त, ३२ लक्षणों से युक्त और पृथ्विज खाद्य तथा फलों का आहार करने वाले होते हैं ।४।। पुढविरसो य सुसाओ मच्छंडियखंड -सक्कर-समाणो । पुष्फ पगडु उत्तर रसतरा, अणुवमरसा उ साउफला ।४१। (पृथ्वीरसश्च सुस्वादः, मत्स्यंडि-खंड-शर्करा समानः । पुष्पा प्रकटुत्तर रसतराः, अनुपमरसास्तु स्वादु फलाः ।)
उस समय में पृथ्वी का स्वाद मिश्री अथवा शक्कर के समान मधुर पुष्पों का रस नितान्त परमात्कृष्ट और सुस्वादु, फलों का रस इतना स्वादिष्ट होता है कि उसके स्वाद का वर्णन करने के लिये संसार में कोई उपमा नहीं है ।४११ पुष्फ फलाणं च रसं, अमयरस-इट्ठतरगं जिणा बिति । संवच्छरपरि सज्जिय, नवनिहिपइ भोयण घराओ ।४२