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________________ { तित्थोगाली पइन्नय (पुष्प-फलानां च रसं, अमृतरस-इष्टतरकं जिनाः ब्रुवन्ति । संवत्सर-परिसज्जित, नवनिधिपति भोजन-गृहात् ।) जिनेश्वर भगवान उस समय के फूलों तथा फलों के रस को अमृत रस और नवनिधिपति चक्रवर्ती की पाकशाला में वर्ष भर के परिश्रम से निर्मित भोजन की अपेक्षा भी अत्यन्त इष्टतर अर्थात् स्वादिष्ट बताते हैं । ४२। भरहाइ दस वि खेता, देव-कुराई वि तत्तिया चेव । एते बीस खित्ता. वियाण पढमिल्लुए अरगो (गे) ।४३। (भरतादि दशापि क्षेत्रा. देवकुर्वाद्यापि तावत्काः चैव । एते विंशति क्षेत्राः, विजानीहि प्रथमिल्लके आरके ।) पोच भरत, पांच ऐरवत पाँच देवकुरु और पांच हो उत्तरकुरु इन बीस क्षेत्रों में सुषमसुषमा नामक प्रथम प्रारक की अवधि में इस प्रकार की स्थिति समझनी चाहिए ।४३। . आउसरीरुस्सेहो, सागर कोडीउ जाव चत्तारि । पलिओवमाई तिण्णिउ. तिण्णि य कोसा समा भणिया ४४. . (आयुशरीरोत्सेधः सागर कोट्यः यावत् चत्वारि । पल्योपमानि त्रीणि त्रयो क्रोशाः सभा भणिता ) . इन बीस क्षेत्रों में सुषमसुषमा नामक प्रथम प्रारक की चार कोटाकोटि सागरोपम की सम्पूर्ण अवधि में समान रूप से यौगलिक मानवों की आयु तीन पल्योपम और शरीर की लम्बाई तीन कोस बताई गई है ।४४। एतेसु य खेतेसु, तेसिं मणुयाण पुन सुकएणं । दसविह दुमाउ तइया, उवभोग-सुहा उवणमंति ।४५॥ (एतेषु च क्षेत्रेषु, तेषां मनुजानां पूर्वसुकुतेन । दशविधा द्र मास्तदा, उपभोग-सुखानि उपनमंति ।) इन बीस क्षेत्रों में उस समय के मानव-मिथुनों को उनके पूर्वोपार्जित पुण्य के फलस्वरूप दश प्रकार के द्र म अर्थात् कल्पवृक्ष श्रेष्ठ सुखोपभोग की सम्पूर्ण सामग्री तत्काल प्रस्तुत करते हैं ।४५॥
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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