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तित्थोगाली पइन्नय ]
"भगवन् । ऊपर के चार पूर्व (ग्यारहवें पूर्व से चौदहवें तक) किस प्रकार नष्ट हो गये ? यह आपने जिस प्रकार देखा (ज्ञानातिशय से देखा जाना अथवा सुना ) है उसी प्रकार कहने की कृपा कीजिये ।” |७०३ ।
जह पाडलस्स गुणपायडस्सवि परंपरागओ गंधो । संसग्गी संकतो अहिययरं पाडो हो । ७०४ | ( यथा पाटलस्य गुण प्रकटस्यापि परम्परागतः गंधः । संसर्गी संक्रान्त अधिकतरं प्रकटीभवति ।)
जिस
आचार्य ने श्रमण के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा प्रकार सर्वविदितं गुणों वाले पाटल अर्थात् गुलाब के पुष्प की परम्परागत सुगन्ध अच्छे गांधी के संसर्ग से और अधिक विकसित हो प्रकट होती है । ७०४ |
एवं सुयधर पडिपुच्छतो, नरो परम मंदमेहावी ।
घोडि पुच्छतो पुण, जस पाय दुगंधतो होई । ७०५ |
( एवं श्रुतधर प्रतिपृच्छातः नरो परममंद मेधावी ।
,
घोटिका पुच्छतः पुनः, यथा प्राय दुर्गन्धितः भवति ।
उसो प्रकार परम मन्द मनुष्य भी श्रुतधर से श्रुतसम्बन्धी प्रश्न पूछ-पूछ कर मेधावी बन जाता है । उसी पाटल पुष्प को घोड़ी को पूछ ध देने पर वह दुर्गन्धपूर्ण हो जाता है : ७०५ |
1. स्पष्टीकरणम् - यथा सौगन्धिकस्य प्रयासेन पाटल पुष्पस्य सुगन्धी बहुगुणा संजायते तथैव श्रुतधर गणिनः सकाशात् प्रतिपृच्छया ज्ञानमत्राप्नुवतः मेवाविनः साधोः गुणानि भूरिशो वृद्धिमवाप्य प्रकटाभवन्ति | किन्तु तथैव प्रतिपृच्छया मंदमते अधमनरस्य यत्किचित्कं ज्ञानं तद्वत् दूषितमसुखकरं च भवति यद्वत् बडवायाः पुच्छ आबद्ध पाटल पुष्पं प्रायः मूत्र पूरीषादि संयोगात् दूषितं भवति । विष्णाणं जिणवणं, कयावि न वि दिज्जए अधन्नस्स | धण्णस्स दिज्जए पुणो, सद्दहमाणस्स भावेणं । ७०६ ।