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तित्थोगाली पइन्नयन
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धम्मो जिणाणमत्तो, राया य जणस्स लोगमज्जायाई ते हवंति खीणा, जं सेसं तं निसामेह ।८३७।। (धर्मः जिनानुमतः, राजा च जनस्य लोकमर्यादाः । (ते भवन्ति क्षीणाः, यत् शेषं तत् निशामयत ।
जिनेन्द्र प्रभु द्वारा अनुमोदित धर्म, राजा और मानव समाज को लोकमर्यादाए- ये तीनों हो बातें उस समय क्षीण हो जायेंगी। अन्त में जो शेष भावी घटनाक्रम है ; उसे सुनिये ।८३७। सापग मिहुणं समणो, समणी राया तह अमच्चो य ।) एते हवंति सेमं, अण्णो जणो बहुतरातो '८३८। (श्रावैकमिथुनं श्रमणः, श्रमणी राजा तथा अमात्यश्च । एते भवन्ति शेषा, अन्यो जनः-बहुतरकः ।)
दुःषम काल के अंत में एक श्रावक मिथुन अर्थात् एक श्रावक और एक ही श्राविका, एक श्रमण, एक श्रमणी. एक राजा, एक राजामात्य...ये ६ विशिष्ट मानव होते हैं, शेष बहुत से अन्य जन अर्थात् प्रजाजन होते हैं ।८३८। ओसप्पिणी इमीसे, चत्तारि अपच्छिमाई संघस्स । अंतम्मि दूसमाए. दससु वि वासेसु एवं तु ८३९। (अवसर्पिण्यामस्यां. चत्वारि अपश्चिमानि संघस्य । अन्ते दुषमायां. दशस्वपि वर्षेषु एवं तु ।)......
इस अवसर्पिणी काल के दुःषम नामक पचम आरक के अंत में पांच भरत तथा पांच ऐरवत---इन दशों ही क्षेत्रों में प्रत्येक अन्तिम तीर्थंकर के धर्मसंघ में एक साधू, एक साध्वी, एक श्रावक और एक श्राविका ये चार ही अंतिम सदस्य होते हैं । ८३६। दुप्पप्रभो अणगारो, नामेण अपच्छिमो पवयणस्स । फगुसिरी समणीणं, साविय समणी अपच्छिमिया ८४०।