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तित्थोगालो पाइन्नय
(उत्सर्पिण्यां तस्यां, व्यतिक्रान्तायां चरम समये । ततो आगामिन्यां, अवसर्पिण्यां तथैवोपस्थापना ।)
उस उत्सपिणी काल के प्रारम्भ से अन्त तक जो स्थिति होगी, वही सब स्थिति उसके पश्चात् आने वाले अवसर्पिणी काल में भी व्यतिक्रम अर्थात् उल्टे क्रम से होगी, इस प्रकार की उपस्थापना कर लेनी चाहिए ।९७६ ओसप्पिणी इमाए, जो होही [एगंत] दुस्समाए अणुभावो । सो चेव अणुभावो, उस्सप्पिणीए ठवण गम्मि ९७७। (अवसर्पिण्यामस्यां, यो भविष्यति [ए न्ति] दःषमायां अनुभावः । स चैव अनुभावः, उत्सर्पिण्याः स्थापनके )
इस अवसर्पिणी काल के एकान्त दुष्षम अर्थात् दुष्षमदुष्षमा नामक आरक में जिस जिस प्रकार के अनुभाव (स्थिति अथवा घटना चक्र) होंगे वे ही अनूभाव आगामी उत्सर्पिणी काल की स्थापना के समय अर्थात् प्रारम्भ काल में होंगे ।६७७।
[स्पष्टीकरण -- इस गाथा के द्वितीय चरण में प्रयुक्त- 'दुस्समाए' शब्द के स्थान पर 'एगत दुस्सभाए' होना चाहिए। संभवतः 'तित्थोगाली पइन्नाकार ने एकांत दुष्षम के अर्थ में ही 'दुस्समाए' शब्द का प्रयोग किया होगा। अन्यथा शास्त्रीय मान्यता ही नहीं अपितु प्रस्तुत ग्रंथ में उल्लिखित मान्यता से भी यह गाथा विपरीत हो जाती है। ] . सी उण्ह पगलिएहिं, वित्ती तेसिं तु होइ मच्छेहिं । इगवीस सहस्साई, वासाणं णिरवसेसा उ ।९७८। (शीतोष्ण प्रगलितः, वृत्ति-तेषां तु भवति मत्स्यैः । एकविंशतिः सहस्राणि, वर्षाणां निरवशेषास्तु ।)
तीव्र शीत और गर्मी से गले मत्स्यों के मांस से उन बिलवासी (गुहावासी) मनुष्यों की पूरे इकवीस हजार वर्षों तक उदर पूर्ति होती रहेगी।६७८॥