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[ तित्योगाली पइन्नय जिणभत्तिहरिसियाओ, जीयंतिय जोयणप्पमाणेहिं । सव्वायर२ परि गप्पिय, जाण विमाणेहिं दिव्वेहिं ।१३७) (जिनभक्तिहर्षिताः जीतमिति च योजन-प्रमाणैः । सर्वादरपरिकल्पित, यानविमान-दिव्यः ।)
वे जिनेन्द्र प्रभु के प्रति भक्ति-विभोर हो-"यह हमारा परम्परागत कर्त्तव्य-कल्प अथवा प्राचार है"- यह कह कर सर्वथा समुचित रूपेण सुव्यवस्थित एव सुसज्जित एक योजन विस्तार वाले दिव्य विमानों द्वारा ।१३७। अह उति तहिं तुरियं, हरिसवसुक्करिसपुलइयंगीओ । . अभिवंदिऊण पयया, थुणंति महुरस्सरा इणमो ।१३८। (अथ उपेन्ति तत्र त्वरितं, हर्षवशोत्कर्षपुलकितांग्यः । अभिवंदित्वा प्रयताः, स्तुवन्ति मधुरस्वरा एतत् ।)
शीघ्र ही जिन-जननियों के पास पहुँचती हैं और हर्षातिरेक वशात् उत्कृष्ट रूपेण पुलकित गात्रा वे सब जिन-माताओं को वन्दन कर यत्नपूर्वक मधुर स्वर से इस भांति उनकी स्तुति करती हैं। ।१३८। । तुम्हं नमो नवर्धकय, सरिसविवुव्संत कोमलच्छीणं । जेहिं इमे सुयरयणे, वृढे कुच्छीहिं जिणचन्दे ।१३९। (युष्माभ्यः नमः नवधा कृत्य, सर्पपेवोप्शांत कोमलाक्षीभ्यः । याभि इमे सुतरत्ना व्यूढाः कुक्षीभ्यः जिनचन्द्राः ।)
___"सरसों के फूल के समान सौम्य, शान्त और सुकोमल नेत्रों वाली ( विश्ववंदनीय मातेश्वरियो ! ) आपको नवधाभक्तिपूर्वक नमस्कार है । (धन्य हैं आप। जिन्होंने कि इन जिनचन्द्रों को पुत्र रत्न के रूप में अपनी कुक्षियों में धारण एवं वहन किया है ।१३६।" सुतित्थसमाणाहिं, वियडं तिभुवणमलंकियं पयर्ड । पढमिल्लजगगुरुणो, जणिया तित्थंकरा जाहिं ।१४०। १. जीतमेतत् कल्प एष इति कृत्वा । (रायपसेणिय) २. सव्वादर-सर्वादर-सर्वोचित कृत्य करणे (विपाक, श्र. १, प्र. ६)