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तित्थोगाली पइन्नय ]
नाणारयण विचित्रा, वसुधारा निउडिया पगासंती । गम्भीर महरसो, तो दुदुहिताडिओ गयो । १३४ | ( नाना रत्न विचित्रा: वसुधारा निष्पतिता प्रकाशन्ती । गम्भीर मधुर शब्दः, ततो दुदुभिनाडितो गगने ।)
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अनेक प्रकार के रत्नों से प्रकाशमान् विचित्र वसुधारा को वृष्टि हुई और देवताओं द्वारा बजाई गई देव दुदुभियों का मधुर एवं गम्भीर घोष गगन मण्डल में गूंजने लगा । १३४।
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देवोववयण- पहाए, रयणी आसी य सा दिवस भूया पमय गण गीय- वाइय, कहक्कज्जु (हु) तुट्टिसदाला | १३५| (देवोपपतन - प्रभयाः, रजनी आसीत् च सा दिवसभूता । प्रमदागण गीत वादित्र, कहक्कह तुष्टि शब्दाला 1)
देव देवियों के उपपात अर्थात् आगमन के कारण उनके प्रोज, तेज, आभूषणों और विमानों को प्रभा से वह चैत्र कृष्णा अष्टमी की रात्रि दिन के समान प्रकाशमान बन गई। कोकिलकण्ठिनी सुन्दरियों
समूहों द्वारा गाये गये गीतों की सुमधुर स्वरलहरियों एवं उनके द्वारा बजाए गए वाद्य यन्त्रों की तालपूर्ण सुमधुर ध्वनि तथा प्रमुदितयौगलिकों के कहकहों से वह रात्रि शब्दाला अर्थात् वाचाल प्रतीत होने लगी । १३५ ॥
उडूढमहतिरियलोए, वत्थव्वाओ दिसा - कुमारीओ | उहिणाणेण जिणे, जाए नाऊण तंमि खणे । १३६ । (ऊर्ध्वाधः तिर्यग लोके, वास्तव्याः दिक्कुमार्यः । अवधि ज्ञानेन जिनान् जातान् ज्ञात्वा तस्मिन् क्षणे ।)
ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक् लोक में निवास करने वाली दिक्कुमारियों ने अवधिज्ञान से तीर्थङ्करों का हुआ जानकर तत्क्षण
।१३६।