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________________ ४० ] तित्थोगाली पइन्नय सब प्रकार के शोक तथा भय से रहित वे अपने अपने गर्भस्थ तीर्थङ्कर को सुखपूर्वक वहन कर रही थीं। प्रसव मास के समुपस्थित हो जाने पर भी वे अव्यक्त गूढगर्भा ही बनी रहीं। अर्थात् साधारण गर्भवतियों की तरह उनके उदर प्रसवकाल तक भी बढ़े हुए -पोवरप्रतीत नहीं होते थे ।१३०। जह वड्दति सुगब्भा, सोहा तह तासि पीवग होइ । अहियं च जणे मिहुणाणं, तेहि सह संगणं कुणइ ।१३१।। यथा वर्द्धन्ते सुगर्भाः, शोभा तथा तासां पीवरा भवति । अधिकं च जनाः मिथुनानां, ताभ्यो सह संगतिं कुर्वन्ति ) ज्यों ज्यों उनके कल्याणकारी गर्भ बढ़ने लगे त्यों त्यों उनकी शोभा (ओज-तेज प्रशंसा) भी उत्तरोत्तर अधिकाधिक बढने लगो और पाबाल-वृद्ध यौगलिक जन अधिकाधिक उनके संसर्ग में रहने लगे ।१३१॥ अह नवमंमि अईए, मासे समुबट्ठिए उ दसममि । चित्त बहुल हमीए, बोलीणे पढम रत्चश्मि ।१३२। (अथ नवमे अतीते मासे समुपस्थिते तु दशके । चैत्र बहुलाष्टम्यां, विलीने प्रथम-रात्रौ ।) इस प्रकार नौवें मास के व्यतीत हो जाने और दशवें मास के समुपस्थित होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की प्रथम अर्द्ध रात्रि के बीत जाने के पश्चात् ।१३२।। उत्तरसाढाविसए, अहसम्पत्ते निसागरे कमसो। पसवंति सुहेण य, सुए लक्खण-जुत्ते महासत्त ।१३३ (उत्तराषाढाविषये, अथ सम्प्राप्ते निशाकरे क्रमशः । प्रसवन्ति सुखेन च, सुतान् लक्षणयुक्तान् महासत्त्वान् ।) जब चन्द्रमा क्रमशः उत्तराषाढा नक्षत्र में पाया उस समय मरुदेवो आदि दशों क्षेत्रों के कुलकरों को पत्नियां सभी सुलक्षणों से युक्त महासत्त्वशाली प्रतापी पुत्रों को सुखपूर्वक जन्म देती हैं ।१३३।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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