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तिरयोगाली पद्मन्त्रय ]
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स्थूलभद्र एकाग्रचित्त हो पूर्वगत के सुन्दर गूढार्थं भरे गहनगम्भीर अर्थ पदों एवं आठ वर्षों में आठवें पूर्व का अवगाहन करता हुआ उन्हें हृदयंगम करने में प्रवृत्त रहा । ७४४
तस्स विदाई समतो, तवनियमो एव भद्दबाहुस्स ।
सो पारित तवनियमो वाहरिउ जे अह पवतो । ७४५ ।
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( तस्यापि इदानीं समाप्तः, तपनियम एवं भद्रबाहोः । स पारित -तपनियमः व्याहतु यत् अथ प्रवृत्तः । *
उधर अब भद्रबाहु का भी तप-नियम सम्पन्न हुआ । तपनियम को पारित कर भद्रबाह, अपने शिक्षार्थी शिष्य स्थूलभद्र को पूर्वो की अधिकाधिक वाचनाएँ देने में प्रवृत्त हुए । ७४५ । ( ७४६ की संख्या लिपिक ने छोड़ दी है)
अह भइ भदवाहू, पढमं ता अटूमस्स वासस्स । अणगार न हु किलिस्सासि, भिक्खे सज्झाय-जोगे य । ७४७ | (अथ भणति भद्रबाहू, प्रथमं तावत् अष्टमस्य वर्षस्य |
अनगार' ! न खलु क्लिष्यसि भिक्षायां स्वाध्याय - योगे च ।)
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आचार्य भद्रबाहु आठवें वर्ष के प्रारम्भ में शिष्य से पूछते हैं -- " अनगार ! तुम्हें भिक्षा एवं स्वाध्याय के योग में किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं हो रहा है ? ७४७
सो अस्स वासस्स, तेण पढमिल्लुयं समापट्टो |
कीस य परि मीहं, धम्मावार अहिज्जतो । ७४८।
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( अष्टमस्य वर्षस्य तेन प्रथमिल्ले समापृष्टः । कीदृशं च पलितं मह्यं धर्मवादान् अधीयानस्य ।)
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आठवें वर्ष के प्रारम्भ में भद्रबाहु द्वारा पूछे गये उक्त प्रश्न के उत्तर में स्थूलभद्र ने कहा--- "भगवन् ! धर्मवाद का अध्ययन करते
* उपलब्ध प्रती ७४६ तमा संख्या लिखितैव नास्ति ।