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[ तित्थोगालो पइन्नय
(उद्युक्ताः मेधाविनः, अवशिष्टास्तु वाचनां अलभमानाः । अथ ते स्तोकाः स्तोकाः, सर्वे श्रमणाः विनिस्सृताः ।)
शिक्षा ग्रहण करने के लिये समुद्यत शेष मेधावी शिक्षार्थी साधु यथेप्सित वाचनाओं के न मिलने के कारण वहां से थोड़ी संख्या में निकलने लगे। इस प्रकार सभी शिक्षार्थी श्रमण नेपाल छोड़ कर निकल आये ।७४। एको नवरि न मुचति, सकडाल कुलस्स जसकरो धीरो । नामेण थूलभद्दो, अविहिंसा-धम्मभद्दो त्ति ।७४२। (एको नवरं न मुचति, सकडाल कुलस्य यशकरः धीरो । नाम्ना स्थूलभद्र, अविहिंसा-धर्मभद्रः इति ।)
__ केवल एक--शकडाल कुल का यश बढ़ाने वाले धीर अहिंसा रूपी आत्म धर्म में जागरूक स्थूलभद्र नामक साधु व तकेवली भद्रबाहु के सान्निध्य को नहीं छोड़ता है अर्थात् पूर्वगत की वाचनाएं ग्रहण करता रहता है ।७४२। सो नवरि अपरितंतो, पयमद्धपयं च तत्थ सिक्खंतो। ' अन्तेइ भदबाहु, थिरवाहु अट्ठवरिसाई ७४३। स नवरं अपरित्रान्तः, पदमर्द्ध पदं च तत्र शैक्ष्यन् । अन्ते एति [अन्तेवसति] भद्रबाहु, स्थिरबाहु अष्ट-वर्षाणि )
बिना किसी प्रकार की निराशा एवं संताप के वह बड़े ौर्य के साथ प्रतिदिन एक पद अथवा आधा पद सीखता हुअा दृढ़ बाहुओं वालो भद्रबाहु को सेवा में पाठ (८) वर्षों तक रहता है ।७४३। सुन्दर अट्ठपयाई, अट्टहिं वासेहिं अट्ठमं पुव्वं । भिंदति अभिण्णहियतो, आमेले उ अह पवत्तो । ७४४। (सुन्दरार्थपदानि, अष्टभिर्वरैरष्टमं पूर्वम् । भिनत्ति अभिन्नहृदये, आमेलयितुमथप्रवृत्तः ।)