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तित्थोगाली पइन्नय ]
जे आसी मेहावी, उज्जुत्ता गहण धारण समत्था | ताणं पंचसयाई, सिक्खगसाहण गहियाई | ७३८ | (ये आसन मेधाविनः उक्ताः, ग्रहणधारणसमर्थाः । तेषां पञ्चशतानि शैक्षक साधूनां गृहीतानि ।
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जो पूर्वगत ज्ञान को ग्रहण एवं धारण करने में समर्थ तथा पूर्वों का अभ्यास करने के लिये लालायित थे ऐसे ५०० मेधावी शिक्षार्थी श्रमणों को पूर्वों के ज्ञान की वाचना ग्रहण करने के लिये चुना गया । ७३८ ।
यावच्चगरा से एक्केrकस्सुवटुव्विया दो दो ।.
भिक्खमि अपविद्धा, दिया य रतिं च सिक्खति । ७३९|
वैयावृत्यकरास्तेषां एकैकस्य उपस्थापिता द्वौ द्वौ ।
भिक्षायाम प्रतिबद्धाः दिवा च रात्रं च शिक्षन्ते ।)
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उन ५० श्रमणों में से प्रत्येक की वैयावृत्य अर्थात् सेवा के लिये दो-दो श्रमणों को नियुक्त किया गया । भिक्षाटन आदि कार्यो विनिर्मुक्त ५०० शिक्षार्थी साधु रात और दिन पूर्वो का ज्ञान सीखने लगे ७३६०
ते एग, संघ साहू, वायण परिपृच्छणाए परितंता । वाहारं अलहंता, तत्थ य जं किंचि अमुणन्ता |७४० ते एकसंधाः साधवः, वाचन परिपृच्छनया परित्रान्ताः । व्याहारं अलभमानाः, तत्र च यत्किंचित् अमुणन्तः । )
एक जुट्ट अथवा एक ही संघ के शिक्षार्थी साधु वाचना तथा परिपृच्छा अर्थात् बार-बार की पूछताछ से हतप्रभ हो एवं गहनगंभीर पूर्वगत ज्ञान की यथेप्सित विस्तृत व्याख्या प्राप्त होने की दशा में पूरी तरह उसे न समझ पाने कारण - १८४०|
उज्जुत्ता मेहावी, सिट्ठा उ वायणं अलभमाणा | अह ते थोवा थोवा, सव्वे समणा विनिस्सरिया । ७४१ ।