SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३० ] । तित्थोगाली पइन्नय समय मुझे किसी भी प्रकार का कष्ट कैसे हो सकता है. अर्थात् मुझे किसी प्रकार का कष्ट नहीं है ।७४। एक्कं तो में पुच्छं, केत्तियमे मि सिक्खतो होज्जा । कत्तियमेत्तं च गयं, अट्टहिं वासेहिं ता कि लद्धं ७४९। (एकं तु भवन्तं पृच्छामि, कियन्मात्र मया शिक्षितं भवेत् । कियन्मानं च गतं, अष्टभिर्व स्तावत् किं लब्धम् ।) . हाँ, मैं एक बात आपसे जानना चाहता हूँ कि मुझे कुल कितना सीखना था, उसमें से कितना मोख चूका है...इन (विगत) आठ वर्षों में मैंने क्या (कितना) प्राप्त कर लिया है ? ७४६। मंदर गिरिस्स पासंमि, सरिसवं निक्खिवैज्ज जो पुरिसो । सरिसव मेत्तं ति गर्य, मंदरमेत्तं च ते सेसं .७५०। . (मन्दरगिरेः पार्वे, सर्ष निक्षिपेत यः पुरुषः । । सर्षपमात्रं ते गतं, मंदरमितं च ते शेषम् ।) गिरिराज मन्दराचल के पार्श्व में कोई पुरुष सरसों का एक दाना रख दे और फिर तुम्हारे द्वारा सीखे हुए ज्ञान और अब सीखने के लिये अवशिष्ट रहे ज्ञान को तुलना की जाय तो वस्तुतः मन्दराचल के पार्श्व में पड़ सरसों के एक दाने जितना ज्ञान तुमने सीखा है तथा मंदराचल जितना ज्ञान सीखने के लिये अवशिष्ट रहा है ।७५०। सो भणइ एवं भणिए, भीतो व वि ताअहं समत्थोमि | अप्पं च मई आउ, बहुसुय मन्दरो सेसो ।७५१। (स भणति एवं भणिते, भीतो नापि तावदहं समर्थोऽस्मि | अल्पं च मम आयुः, बहुश्रु तमन्दरः शेषः ।) भद्रबाह के इस कथन को सुन कर श्रमगा स्थलभद्र ने भय विह्वल स्वर में कहा---"तो मैं तो इसे सीखने में समर्थ नहीं हूँ क्योंकि आयु तो मेरी थोड़ी है और श्रुत शास्त्र का इतना सुविशाल मन्दराचल तुल्य भाग सीखना शेष है" ।७५१॥
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy