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________________ तित्योगाली पइन्नव [ २३१ मा भाहि निट्ठविहिसि, अप्पतरेण वीर कालेण । मझ नियमो समत्तो, पुच्छाहि दिवा य रत्तं च ७५२ . (मा भैसिः निष्ठापयिष्यसि, अल्पतरेण वीर ! कालेन । मम नियमः समाप्तः, पच्छ दिवा च रात्रिं च I) ___स्थूलभद्र को आश्वस्त करते दुए भद्रबाहु ने कहा--"वीर ! डरो नहीं। तुम थोड़े से ही समय में इसे समाप्त कर दोगे। मेरा नियम समाप्त हो गया है । अतः अब तुम रात दिन पृच्छाए करते हुए पूर्वो का अध्ययन करो' ७५२। सो सिक्खि पयत्तो, दद्वत्थो सुट्ठ दिद्विवायंमि ।) पुचक्खतोव समियं,' पुबगतं पुत्र-निदिट्ठ।७५३। (स शिक्षितु प्रवृत्तः, दृष्टार्थः सुष्ठु दृष्टिवादे । पूर्वक्षयोपशनिक, पूर्वगतं पूर्व निर्दिष्टम् ।) ___ इस से प्रोत्साहित हो दृष्टिवाद में समीचीनतया सार देख कर मुनि स्थूलभद्र पूर्व क्षयोपशम के फलस्वरूप पूर्व निर्दिष्ट पूर्वगत को सीखने में और अधिक प्रयत्नशील हुए ।७५३। संपति एक्कारसमं पुव्वं अनिवयति वणगओ चेव । जति तओ भगिणीतो. सुट्ठमणा वंदण निमित्तं ७५४। (संप्रति एकादशमं पूर्व , अतिवदति वनगतश्चैत्र । यान्ति ततः भगिन्यः, सुष्टुमनसः वन्दननिमित्वम् ।) अब स्थलभद्र एकान्त वन में बैठ कर ग्यारहवें अंग का पाठ याद करने लगे। उस समय उनकी बहिनें हर्ष के साथ उन्हें वन्दन करने गई।७५४। जक्खा य जक्खदिन्ना, भूया तह हवति भूयदिनाय । सेणा वेणा रेणा, भगिणीतो थूलभदस्स ।७५५ १ पूवक्खयोवस मिगं'- इत्यपि संभाव्यते ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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