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| तित्यांगाली पडन्न य
वावीपुक्खरणीओ, देसेदेसेत्थ दीहियाओ य । पेच्छण संकुलाओ, सयणासण मंडिय तहाओ | २८ (वापी पुष्करिण्यः, देशे देशे अत्र [च्छ ] दीर्घिकाश्च । प्रक्षणक संकुलाः, शयनासनमण्डिताः तथा तु ।।)
उस नारक में स्थान स्थान पर सर्वत्र देखने योग्य अनेक मनोरम दृश्यों से सत्रुल, शंया-आसनों आदि से सुसज्जित वापियाँ पुष्करिणियाँ एवं दीर्घिकाएँ होती हैं |२८|
महुघयक्खरसोदगखीरासव वरवारुणी जलाओ । काओ य पगइपाणिय फलिय सरिच्छत्थ भरियाओ । २९ (मधु- घृत - इक्षुरसोदक क्षीरासब चरवारुणी जलाः । काश्च प्रकृतिपानीय स्फटिकसदृशा अत्र भरिताः ।)
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जो शहद घृत, इक्ष रस द्राक्षा, क्षीर, आसव और उत्तम वारुणी के समान सुस्वादु एवं सुगन्धित जल से परिपूर्ण तथा उनमें से कतिपय वापियाँ आदि स्फटिक मरिण के समान स्वच्छ प्राकृतिक पानी से भरी . रहती हैं |२|
जाओ वि रयणवेलुय, परिगयाउ सोयणे सुह विहाराओ । तामरस कमल कुवलय, नीलुप्पलसोहिय जलाओ | ३० | (या अपि रत्नवैडूर्य - परिगताः शोभनाः सुखविहाराः । ताम्ररस-कमल- कुवलय, नीलोत्पलशोभित - जलाः । । )
वे सब वैडूर्य रत्नों से निर्मित अतिसुरम्य सुखपूर्वक विचरण करने योग्य तथा ताम्ररस कमल, कुवलय एवं नीलोत्पल से सुशोभित जल से परिपूर्ण होती हैं |३०|
तासिंचडोलरूडहडगविविह उप्पायज्जगइ पव्वयगा । इंदियसुहोवभोगा, सभावजाया रयणचित्ता । ३१ ।
( तासां च अडोल खटहटक विविध उत्पाद जगति पर्वतकाः । इन्द्रिय सुखोपभोगा, स्वभावजाता रत्न - चित्रा ।)