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________________ तित्थोगाली पइन्नय ] उन वापियों, पुष्करिणियों और दीपिकाओं के चारों ओर अति सुन्दर प्राकृतिक प्राकार जगतियाँ आदि रत्नों से जटित और चक्षु आदि इन्द्रियों को बड़ा आनन्द प्रदान करने वाली होती हैं ।३१॥ देसे देसे य सुरम्मा, केलिलयाहरग केयइ घरा य । तेसु वि य रयणचित्ता, मणिकणगसिलातला रम्मा ।३२। (देशे देशे च सुरम्या केलिलता-गृह-केतकि-गृहाश्च । तेष्वपि च रत्नचित्रितः, मणिकनकशिलातला रम्याः ।) स्थान स्थान पर नयनाभिराम लताओं से निर्मित केलि-कुज और केतकी मण्डप हाते हैं। उन निकुञ्जों और के लि-गृहों में अनेक प्रकार के रत्नमय चित्रों से सुशोभित अति कमनीय मरिण शिलाएँ एवं कनकशिलाएँ यथास्थान बिछी रहती हैं ।३२।। एतेसु य अन्नेसु य, पहाणभोगोवभोगपउरेसु । विविहे पुण्णफलरसे य सक्कसिरिमणुभवंति ।३३। (एतेषु च अन्येषु च, प्रधान भोगोपभोग प्रचुरेषु । विविधान् पुण्यफलासांश्च शक्रश्रियमनुभवन्ति ।) पांच भरत तथा पांच ऐरवत एवं देव कुरु, उत्तरकुरु प्रादि उत्कृष्ट कोटि के भोगोपभोग प्रधान क्षेत्रों में यौगलिक मानव विविध पुण्यफलों के रस स्वरूप इन्द्र के समान सुख ऐश्वर्य का उपभोग करते हैं ।३३। गाम नगरागराइ, पिउपिंडनिवेयणा जम्मफला। एते न संति भावा, ऐतेसु सुरालयनिभेसु ।३४। (ग्रामनगरागरादि, पितपिण्डनिवेदना च जन्मफलाः । एते न संति भावाः, एतेषु सुरालयनिभेसु ।) ___ उस काल में सुरलोक सदृश उपर्युक्त क्षत्रों में ग्राम, नगर, प्रासाद पिता-पुत्र का पारस्परिक कर्तव्य और जन्मफल अर्थात् रोग-शोकजरा-दुःखादि का अस्तित्व तक नहीं रहता ।३४। असिमसिकिसिवाणिज्जं, ववहारो नत्थि रायधम्मो वा । तेसि मिहुणणा तया, रोसोपोसोवएसो वा ।३५॥
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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