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तित्थोगाली पइन्नय ।
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(पुरवर वर फलिह* भुजा, घन-स्थिर-सुश्लिष्ट बद्ध संधिकाः । वर पीवरांगुलितलाः, चतुरांगुल-कम्बुसदृश श्रीवाः ।)
समृद्ध एवं सुविशाल श्रेष्ठ नगर के द्वार की अर्गला के समान सुदृढ़ भुजाओं वाल, प्रगाढ़, सुदृढ़ सुस्थिर सुन्दर एव दृढ़तापूर्वक सधे एवं बंधे हुए शारीरिक सन्धियों वाल, मांसल होने के कारण उभरे हुए अंगुलितलों वाले, चार अंगुल लम्बी एवं शंख जैसी सुन्दर ग्रीवा (गर्दन) वाले ॥१८०॥ सुविभत्तः चित्त मंसू, पसत्थ-सद्ल विपुलवरहणुया। विबोट्ट-धवल दंता, गोखीरसरिच्छ दसन पभा ।११८१। (सुविभक्त-चित्रश्मथ (वन्तः), प्रशस्त शार्दूल विपुलवरहनुकाः । बिम्बोष्ठ-धवलदन्सा गोक्षीरसदृशदशनप्रभाः)
अच्छी तरह छटी अथवा बल खाई हई अलि सुन्दर तीखी मूछों वाले, सभी तरह सराहनीय सिंह की हनु के समान पुष्ट एवं बड़ी सुन्दर ठुड्डी वाल. बिंब फल के समान लाल ओष्टपुटों तथा गाय के दूध के समान धवल दंत पंक्तियों की प्रभा वाले ॥११८१॥ [तत्त] तवणिज्ज रत्तजीहा, गरुलायअ उज्जु तुग णासा य । वर पुंडरीय नयणा, आणामिय चाववर भुमआ।११८२। (तप्त) तपनीय रक्त जिह्वा, गरुडायत ऋजु तुंगनासाश्च । वर पुण्डरीकनयनाः, आनामित = चापवर भ्रवः।)
प्रतप्त स्वर्ण के समान लाल-लाल जिह्वा, गरुड़ की चोंच के समान आयत, सीधी, उन्नत तीखो नाक, श्रेष्ठ लाल कमल के फूल के समान प्रफुल्ल लोचनों, संधान हेतु कुछ झुकाये हुए श्रेष्ठ धनुष के समान भोंहों वाले ॥११८२॥
* वर फलिह-वरा अर्गला। = पानामित चाप-ईषद् नामित अर्थात् इषुना सन्नद्ध धनुः ।