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[ तित्थोगालो पइन्नय
वर वारण मत्तगती, वरतुरग सुजाय गुज्झ देसा य । वरसीहवट्टियकडी, वइरोवम देसमज्झा य ।११७७। वरवारणमत्त गतयः, वरतुरंगसुजातगुह्यदेशाश्च । वरसिंहवर्तित कटयः, वज्रोपम देशमध्याश्च ।)
श्रेष्ठ हस्तो के समान मत्त गम्भीर चाल, अच्छी जाति के उत्तम घोड़े के समान प्रच्छन्न गुप्तांगों वाल, केसरी के समान कटि और वज्र के समान त्रिवलि युक्त मध्य भाग (कटि एवं उदर) वाले।११७७॥ गंगावत्त पयाहिण, रवि किरण विबुद्ध कमल समनाभी। रमणिज्ज रोमराई, झस विहग सुजाय कुच्छीया ।११७८। (गंगावर्त प्रदक्षिण-रविकिरण विबुद्धकमलसमनाभयः । रमणीयरोमराजयः, झप-विहग सुजात कुक्षीकाः।) __गंगा प्रवाह के आवर्त अर्थात् भँवर के समान प्रदक्षिणा करती हुई सी और सूर्य की किरणों के द्वारा विबुद्ध अर्थात् प्रफुल्लित कमल के फूल के समान नाभि वाल, मनोरम रोमावलि वाल, मछली अथवा पक्षी के समान प्रछन्न कुक्षि वाले ॥११७६।। संगत पासा संणयपासा, सुदर सुजाय पासा वि । बत्तीस लक्खणधरा, उवइअ वित्थिण्णवर वक्खा ।११७९। (संगत पार्थाः सन्नत पार्थाः, सुन्दर-सुजात पार्था अपि । द्वात्रिंशल्लक्षणधरा, उपचित + विस्तीर्ण वरवक्षाः ।)
यथास्थान समुचित रूपेण सुगठित, क्रमशः अन्दर की ओर झुके हुए, सांचे में ढल हुए से पाश्वों, वाल बत्तीस लक्षणों के धारक एवं मांसल समुन्नत विशाल वक्षस्थल वाल ॥११७६ ।। पुरवर वर फलिह भुजा, घणथिर सुसिलिट्ठ बद्ध संधीया । वर पीवरंगुलितला. चउरंगुल कंबुसरिस गीवा ।११८०। * वज्रवत् वलित्रयोपेत मध्यभागाः । क्षीण कटश्चेत्यर्थः । + उपचित:- मांसलः ।