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[ तित्थोगाली पइन्नय
आगामी उत्सपिरणी काल के दुःषम-सुषम प्रारक का यह वर्णन किया गया । तृतीय प्रारक का कथन समाप्त हुआ। अब मैं उत्सपिणी काल के सुषम-दुषम नामक चतुर्थ प्रारक के सम्बन्ध में कथन करता हूँ ।११५६। पलितोवम लोहड्ढ (१) परमाउं होइ तेसि मणुयाणं । उक्कोस चउत्थीए, पवड्ढमाणाउ रुक्खादी ।११५७। (पल्योपमं साद्ध (१) परमायुः भवति तेषां मनुष्याणाम् । उत्कर्ष चतुर्थी, प्रवर्द्ध मानास्तु वृक्षादयः ।)
उन (सुषम-दुःषम आरक के) मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक पल्योपम होती है । ज्यों ज्यों इस चतुर्थ प्रारक का समय व्यतीत होता जाता है त्यों त्यों कल्पवृक्ष आदि बढ़ते - वृद्धिंगत रहते हैं ।११५७।
जह जह वड्ढइ कालो, तह तह बड्दंति कप्परुक्खादी। एकं गाउगमुच्चा, नर नारी रूव संपण्णा ।११५८। (यथा यथा वर्द्ध ते कालस्तथा तथा वद्धन्ते कल्पवृक्षादयः । एकं गाउकमुच्चा, नरनार्यः रूपसंम्पन्नाः ।)
ज्यों ज्यों समय बीतता जाता है, त्यों त्यों कल्पवृक्षादि की वृद्धि होती रहती है। एक गाउ (माप विशेष क्रोश) की ऊंचाई वाले उस समय के नर-नारीगण बड़े रूप सम्पन्न होते हैं । ११५८। मूलफलकंदनिम्मल, नाणा विह इट्टगंध रस भई । ववगतरोगातका, सुरू य सुर दु'दुहि थणिया ।११५९/ (मूलफलकंदनिर्मल, नानाविधेष्टगंधरसभोजिनः । व्यपगत रोगातंकाः, सुरूप-सुरदुंदुभिस्तनिताः ।)
उस पारक के मानव अनेक प्रकार के सुगन्धित गन्ध रस वाले निर्मल कन्द-मूल-फलों का उपभोग करने वाले, रोग अथवा आतंक विहीन, सुन्दर रूप-सम्पन्न और देवदुन्दुभि के निर्घोष के समान मधुर स्वर वाले होते हैं ।११५९।