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तित्थोगाली पइन्नय ]
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सच्छंद वण विहारी, ते पुरिसा ताय होंति महिलाउ । निच्चोउयपुष्फफला, ते विय रुक्खा गुणसमिद्धा ।११६०। (स्वच्छन्दवनविहारिणः, ते पुरुषास्ताश्च भवन्ति महिलास्तु । नित्य तुक पुष्पफलाः, तेऽपि च वृक्षाः गुणसमृद्धाः ।)
उस समय के नर एवं नारी- गण वनों में यथेच्छ विचरण करने वाले तथा कल्पवृक्ष भी सदा सब ऋतुओं के फलों से और गुणों से समृद्ध होते हैं ।११६०। कोड़ा कोडी कालो, दो चेव य होंति सागराणं तु । . सूसम दुसमा एसा, चउत्थ अरगम्मि अवक्खाया ।११६१। (कोटा-कोटी कालः द्वौ चैव च भवति सागरयोस्तु । । सुःषम दुःषमा एषा, चतुर्थ आरके अवख्याता ।) ... उत्सर्पिणी काल के उस चतुर्थ प्रारक में दो कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण काल होता है और वह सुषम-दुःषमा के नाम से विख्यात है ।११६१॥ एत्तो परं तु वोच्छं, सुसमाए किंचि एत्थ उद्दसं । जह होइ मणुय तिरियाण, कप्परुक्खाण य वुड्ढीओ ।११६२। (इतः परं तु वक्ष्यामि, सुषमायाः किंचिदत्रोदशं । यथा भवति मनुज तिर्यञ्चानां, कल्पवृक्षाणां च बद्धयः ।)
· अब मैं यहां आगामी उत्सपिरणी काल के सुषम नामक आरक में जिस प्रकार मनुष्यों, तिर्यञ्चों और कल्पवृक्षों की वृद्धि होती है, उसके सम्बन्ध में कुछ कथन करूंगा।११६२। जह जह वट्टइ कालो, तह तह वड्दति आउ दीहादी। उवभोगा य नराणं, तिरियाणं चेव रुक्खे सु ।११६३। (यथा यथा वर्धते कालः, तथा तथा वर्द्धन्ते आयु दीर्घतादि । उपभोगाश्च नराणां, तिर्यञ्चानाञ्चैव वृक्षेषु ।)