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[ तित्थोगाली पइन्नय
ज्यों ज्यों काल आगे की ओर बढ़ता है, त्यों त्यों इन सब की आयु दोर्घता आदि तथा मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों के वृक्षों में उपभोग बढ़ते रहते हैं ।११६३।
अणिणि दीवसिहा तुडियंगा, भिंग
कोवीणे उदुसुहा चैव ।
आमोदा य पमोदा, चित्तरसा ( पत्थ) कप्परुक्खा य । ११६४ । (अनग्नाः दीपशिखाः त्रुटितांगाः, भिङ्गाः कोपीना ऋतुसुखा चैव । आमोदाश्च प्रमोदाः, चित्ररसाः प्रस्थाः कल्पवृक्षाश्च ।)
नग्ना दीपशिखा, त्रुटितांग भृंग, कोपीना, ऋतुसुखा, आमोदा, प्रमोदा चित्ररस और प्रस्थ-- ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष उस समय में होते हैं । ११६४
वत्थाई अणिगणेस दीवसिहा तह करेंति उज्जोयं । तुडियंगेसु उज्झं, भिंगेतु य भायण विहीओ | ११६५३ (वस्त्रादि अनग्नेषु, दीपशिखाः तथा कुर्वन्ति उद्योतम् । त्रुटितांगेषु च गेयं, भृगेषु च भाजन विधयः । )
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उस समय के मनुष्यों को अनग्ना नामक कल्पवृक्षों से . वस्त्रादि दीपशिखा नामक कल्पवृक्षों से प्रकाश, त्रुटितांगों से संगीत, भृंग नामक कल्पवृक्षों से सब प्रकार के भाजन पात्रादि - | ११६५ ।
कोबी आभरणं, उदुमुहे भोग वण्णग विहीओ । आमोएसु य वज्जं, मल्ल विहीउ पमोए सु । ११६६ । (कोपीने आभरणानि, ऋतु सुखेषु भोगवर्णक विधयः । आमोदेषु च वाद्यानि मल्लविधयः प्रमोदेषु ।)
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कोपोन नामक कल्पवृक्षों से आभरणालंकार, ऋतुसुख नामक कल्पवृक्षों से विविध भोगोपभोग एवं श्रृंगार-प्रसाधन की सामग्री, आमोद नामक कल्पवृक्षों से वाद्य, प्रमोद नामक कल्पवृक्षों से मल्ल विधियाँ - | ११६६।
लिपिकेन प्रतौ प्रस्थ' इति प्रमादान्न लिखितम् ।