SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४६ ] [ तित्थोगाली पइन्नय में नष्ट हो गये। क्यों कि ये दोनों तप केवल चतुर्दश पूर्वधर ही कर सकते हैं। शेष तप चतुविध तीर्थ की विद्यमानता तक विद्यमान रहेंगे ८०४। तं एवमंगवंसो य, नंदवंसो मरुयवंसो य । सवराहेण पणड्डा, समयं सज्झायवंसेण |८०५ | (तद् एवं अंगवंशश्च नन्दवंशः मरुतवंशश्च । 9 स्वापराधेन प्रणष्टाः समं स्वाध्यायवंशेन ) , १ तो इस प्रकार सज्झाय वंश के साथ - साथ अग वंश, नन्द वंश और मरुत (मौर्य ? ) वंश अपने अपराध मे नष्ट हुए । ८०५। पढमो दस पुव्वीणं, सडालकुलस्स जसकरो धीरो । नामेण थूलभदो, अविहिसाधम्म - भदो चि ।८०६ | (प्रथमः दश पूर्वाणां शकटालकुलस्य यशस्करः धीरः । नाम्ना स्थूलभद्रः, अविहिंसा धर्मभद्र इति ।) A दशपूर्वधारियों में प्रथम शकटार कुल का यशोवर्द्धक स्वधर्मभद्र धैर्यशाली स्थूलभद्र होगा | ८०६० नामेण सच्चमित्तो, समणो समणगुण निउण चित्रतीउ । हो ही अपच्छिमो किर. दस पुच्ची धारओ वीरो । ८०७ ( नाम्ना सत्यमित्रः, श्रमणः श्रमणगुणनिपुणचिन्तकस्तु | भविष्यति अपश्चिमः किल, दशपूर्वी धारकः वीरः । ) श्रमणगुणों में निपुण और श्रमणगुणों का चिन्तक सत्य - मित्र नामक वीर श्रमर अन्तिम दश पूर्वधर होगा | ८०७ | एयस्स पुञ्चसुपसायरस, उदहिव्व अपरिमेयस्स । सुसु जह अथकाले, परिहाणी दीसते पच्छा | ८०८ | ( एतस्य पूर्व तसागरस्य, उदधिरिव अपरिमेयस्य । श्र णुस्व यथा अथकाले, परिहानि दृश्यते पश्चात् ।) दशानां पूर्वाणां समाहारः - इति दशपूर्वी ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy