________________
तित्थोगाली पइन्नय ।
.. [ २४५ नाहिसि तं पुवाई, सुयमेत्ताई वि भुग्गहाहिति । दस पुण ते अणुजाणे, जाणपणट्ठाई चत्वारि' |८०२। (ज्ञास्यसि त्वं पूर्वाणि, सूत्रमात्राण्यपि भूग्रसितानीति । दश पुनः ते अनुजानामि, जानीहि प्रणष्टानि चत्वारि ।
भद्रबाहु ने कहा- 'तुम उन चार पूर्वो के सूत्र मात्र अर्थात् व्याख्या रहित मूल मात्र को जान लोगे; पर इनके सम्बन्ध में भी तुम समझ लेना कि इन्हें पृथ्वी ने ग्रस लिया है, किसी अन्य को इनका ज्ञान न देना। दश पूर्वो का ज्ञान अन्य श्रमणों को देने की मैं तुम्हें अनुज्ञा देता है। शेष चार पूओं को नष्ट हुमा हो समझना ।८०२।
(इस गाथा का प्रथम चरण "राजेन्द्र सूरि शास्त्र भण्डार"आहोर. मे प्राप्त प्राचीन प्रति में नहीं है। शेष ३ चरण हमारे पास • की प्रति के समान ही हैं।) एतेण कारणेण उ, पुरिसजुगे अट्ठमम्मि वीरस्स । सयराहेण पणट्ठाई, जाणचत्वारि पुवाई ।८०३। . (एतेन. कारणेन तु पुरुषयुगे अष्टमे वीरस्य । स्वापराधेन प्रणष्टानि, जानीहि चत्वारि पूर्वाणि ।)
___ इस प्रकार भगवान महावीर के आठवें पट्टधर स्थूलभद्र में उनके स्वयं के अपराध से उपरिम चार पूर्व नष्ट हुए जानो ।८०३। अणवठ्ठप्पो य तवो, तब पारंची य दो वि वोच्छिन्ना । चउदस पुत्र धरंमि धरंति, सेसाउ जा तित्थं ।८०४। (अनंवष्ठपश्च तपः, तपः पाराञ्चिकश्च द्वावपि व्युत्च्छिन्नौः । चतुर्दश पूर्वधरे धृयन्ते, शेषास्तु यावतीर्थम् ।)
अनवष्टप तप,और पारंचित तप---ये दोनों तप भी स्थूलभद्र
-
-
१ गाथाया: भावार्थमेवं प्रतीयते-- शेषाणां चतुर्णा पूर्वाणां केवलां सूत्रमात्रां
वाचनां ते ददामि । तानि त्वं एकसूत्रमितान्यपि नाध्यापयिष्यसि कमप्यन्यम्. भुवा ग्रस्तान्येतानीति प्रणष्टानि चेति मत्वा । दशपर्वाणां वाचनां त्वं तव शिष्येभ्य: दातु शक्नोसीत्यहं त्वामनुजानामि ।