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________________ २४४ ] [ तित्थोगाली पइन्नय जह जह एहि कालो तह तह अप्पावराह संरद्धा | अणगारा पडणीते, निसंसयं उट्टवेर्हिति । ७९८ | ( यथा यथा आगमिष्यति कालः तथा तथा अल्पापराधसंरब्धाः । अनगाराः प्रत्यनीकाः निःशंसयं तु वर्तयिष्यन्ति ।) " अब आगे ज्यों ज्यों काल व्यतीत होगा त्यों त्यों निःशंसय छोटे से छोटे अपराध पर भी प्रक्रुद्ध होने वाल े अविनीत अगंगार होंगे | ७६८। उप्पायनीहि अवरे, केह विज्जा य उप्पर ताणं । चउरुव्विहि विज्जाहिं, दाई काहिंति उड्डाहं । ७९९ | - ( उत्पादनीभिरपरे, केचित् विद्या च उत्पादयित्वा । चतुःरूपामिवियामि तदानीं करिष्यन्ति ( उड्डाहम् ) | ) उस समय कतिपय अणगार उत्पादनियों से अनेक प्रकार की विद्याएं उत्पन्न कर चार प्रकार की विद्याओं से लोगों का उड्डाह अर्थात् उच्चादन अथवा उत्पीडन करेंगे |७६६ मंतेहि य चुहिय, कुच्छिय विज्जाहिं तह निमित्तेणं । काउण उवग्घायं, भमिहिंति अनंत संसारे । ८०० | ( मन्त्रैश्च चूर्णैश्च कुत्सित विद्याभिस्तथा निमित्तेन । कृत्वा उपघातं भ्रमिष्यन्त्यनन्त संसारे ।) , मन्त्रों, चूर्गों, कुत्सित विद्याओं तथा निमित्तों द्वारा मानवों का उपघात कर अनन्त काल तक संसार में भटकते रहेंगे | ८००। अह भइ धूल भदो, अण्णं रूवं न किंचि काहामो ) इच्छामि जाणिउ जे, अहयं चत्तारि पुव्बाई ८०१ । ( अथ भणति स्थूलभद्र, अन्यं रूपं न किञ्चित्कथयिष्यामः । इच्छामि ज्ञातु ं यत्, अहं चत्वारि पूर्वाणि ।) भद्रबाहु के इस कथन को सुन कर स्थूलभद्र ने कहा--' अन्य तो मैं कुछ नहीं कहूंगा। मैं तो केवल उपरिम चार पूर्वो को जानना चाहता हूँ ८०१
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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