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________________ तित्योगाली पइन्नय [ २४७ समुद्र के समान अपरिमेय इस पूर्वश्रुत - सागर की कालान्तर में उत्तरोत्तर जिस प्रकार हानि दिखाई देती है उसे सुनो पुव्व सुय तेल्ल- भरिय विज्झाए सच्चमित दीवंमि । धम्मावाय निमित्तो, होही लोगो सुयनिमितो ८०९ | ( पूर्व त तैल भरिते. विध्याते सत्यमित्र - दीपे | धर्मवाद निभृतः भविष्यति लोकः श्रुत निभृतः 1 ) , पूर्वश्रुत रूपी तैल से भरे सत्यमित्र रूपी दीपक के बुझ जाने पर धर्मवाद अर्थात् दृष्टिवाद पर निर्भर लोक अर्थात् श्रमण वर्ग श्रत का आश्रित हो जायगा ८० बोलीम्मि सहस्से, वरिसाणं वीरमोक्ख गमणाओ । λ उत्तरवाय गवस, पुव्वगयस्स भवेच्छेदो | ८१० | (विलीने सहस्र वर्षाणां वीरमोक्षगमनात् । उत्तरवाचकवृषभ, पूर्वगतस्य भवेच्छेदः । ) : १८०८। भगवान् महावीर के मोक्षगमन के पश्चात् एक हजार (१०००) वर्ष व्यतीत हा जाने पर अन्तिम अथवा उत्तर बलि स्सह के वाचक वंश में उत्पन्न वाचक श्रेष्ठ ( देवद्विगरिण क्षमाश्रमण ) में पूर्वगत का विच्छेद हो जायगा । ८१०। वरिससहस्सेण पुणो तित्थोगालीए वद्धमाणस्स । नासिही पुञ्चगतं, अणुपरिवाडीए जं जस्स ८११ (वर्षसहस्र ेण पुनः तीर्थोद्गालिके वद्ध मानस्य | नंक्ष्यति पूर्वगतं अनुपरिपाट्या यद् यस्य । ) ; तीर्थ · ओगाली अर्थात् तीर्थ - प्रवाह में भगवान् वर्द्धमान के निर्वारणानन्तर एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर परिपाटी के अनुसार जिसके पास जितना पूर्वगत ज्ञान होगा, वह नष्ट हो जायगा ८११ । पण्णासा वरिसेहिं य बारस वरिस सएहिं बोच्छेदो । दिण्णगणि प्रसमिते, सविवाहाणं बलंगाणं ८१२ । १ धर्मवादी दृष्टिवाद: तन्निर्भर: लोको श्रुतनिर्भर: भविष्यतीत्यर्थः ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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