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तित्थोगाली पइन्नय]
. [२८३ अहियं होही सीतं, अहियं उण्हो वि होहीति सततं । हो ही तइया लोगो, मुम्मुर निकरेण सारिच्छो ।९३६। (अधिकं भविष्यति शीतं, अधिकं उष्णोऽपि भविष्यति सततम् । भविष्यति तदा लोकः, मुमु रनिकरेण सदृशः ।)
अत्यधिक शीत पड़ेगा और तपन भी निरन्तर अधिकाधिक होती जायेगी। उस समय लोक आग की चिन्गारियों के पुज के समान हो जायेगा।६३६। होही मुम्मिरा भूमी, पडंत इंगाल मुम्मरसरिच्छा। अग्गी हरियतणाणि य, नवरं नासीही न होही ।९३७) (भविष्यति मुर्मुरा भूमिः, पतत्-अंगार-मुमु र सदृशाः। .. अग्निः हरित तृणानि च, नवरं नाशयिष्यति न भविष्यति ।)
भूमि गिरते हुए अंगारों की चिन्गारियों के समान तपी हुई हो जायेगी । अग्नि और हरे तृण पूर्णतः नष्ट हो जायेंगे ।६३७। उदएणं बूढो सोउजणो, पुष्कफलपत्त परिहीणो । कलुण किविणो वराओ, होहिति उ दुल्लहो दट्ठ १९३८। (उदकेन वाहितः स तु जनः, पुष्पफलपत्र परिहीणः । करुणकृपणो वराका, भविष्यति तु दुर्लभः द्रष्टुम् ।)
___ जल-प्रवाह द्वारा बहाये हुए फल और पत्र तक न पाकर करुण दीन-हीन बने हुए लोग दिखने तक दुर्लभ हो जायेंगे अर्थात् बोजमात्र अवशिष्ट रहेंगे ।६३८। विक्कल्ल कालिया उ, विक्कल्ल पिसाइया महिला उ । ववगत नियंसणाउ, नवरं के सेहिं पडिबद्धा ।९३९। (विकराल कालिकास्तु, विकराल पिशाचिकाः महिलास्तु । व्यपगत निदर्शनास्तु, नवरं केशः प्रतिबद्धाः ।)
उस समय में महिलाएँ विकराल कालिका अथवा विकराल पिशाचिनी के तुल्य बीभत्स, लज्जाविहीन और केशों अथवा क्लेशों से आबद्ध होंगी।६३६॥